राहु...

मैंने सूर्य की,
छाती पर जब.
तेरा नाम,
उकेरा था.
कोपल का एक,
हार बना के.
तुमने मुझको,
घेरा था.
एक प्रहर को,
आज जो तम ने.
की दिनकर पर,
छाया है.
कौन हूँ मैं,
मुझसे पूछा है.
राहु मुझे,
बताया है.

3 टिप्पणियाँ:

संजय भास्‍कर said...

... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।

स्वप्निल तिवारी said...

waaaaaaaaaaaaaaahhhhh.....kya dhansu pravah hai is rahu kavita me...mujhe bhi dhak liya thoda thoda

Avinash Chandra said...

aap dono ka hardik dhanyawaad