पिताजी हर रात,
ठीक है, अमूमन,
अमूमन हर रात,
देर तक जागते थे.
मुझे देते थपकियाँ,
आँखों ही आँखों,
तारों के पीछे,
रोज भागते थे.
सुबह रख देता था,
तकिया सिरहाने कोई.
बाबू जी नहीं,
होते थे वहाँ.
होते थे कुछ,
सपने-औ-अरमान.
सच, पूरे, साक्षात.
कैसे? कहाँ से?
ना पूछा, ना बताया.
फिर से अरमान,
फिर से सपने.
फिर से हकीकत,
रोज, हर रोज,
देखे, सहेजे, कुबूले.
जगह बदलने से मुझे,
नींद नहीं आती.
कल रात नहीं,
सो पाया फिर.
कल मैंने भी रात,
दूर तक तारे निहारे.
कल रात मैं भी,
सुबह तक जागा.
पिताजी, माँ.
रे छुटके, तू भी.
सपने देखो, सजाओ.
मेरे दोस्त तुम भी,
कुछ ख्वाब बताओ.
कुछ सच कर दूँगा.
या कम से कम,
पहनूँगा सपनों के जूते,
तो तेज दौडूंगा.
जागती आँखों के राज,
कुछ मैंने भी जाने हैं.
सिरहाने सुबह अरमान,
कुछ मुझे भी सजाने हैं.
रात जो देखे मैंने,
अलौकिक वो,
गूलर के फूल,
मुझे भी तोड़ लाने हैं.
मिथक है, कहावत है...पर नानी की जुबानी है तो सच मानता हूँ, गूलर के फूल करते हैं ख्वाब पूरे, मुश्किल से मिलते हैं, मैं जानता हूँ.
10 टिप्पणियाँ:
behad sachhi achhi rachna ..avi...aur gular ke phool ..bas ek pal ko khiulte hain aisa bhi suna hai maine.. :)..badi baaten hain iske bare me..kisi kavita me maine bhi iska ziqra kiya tha..par itna sundar nahi.. :)
पिता के ऊपर बहुत कम लिखते हैं पर आपने कमाल का लिखा..."
आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,
Shukriya swapnil bhaiya..
aapne likha to mujhse bahut behtar likha hoga.. :)
Amitraghat ji
aapka shukriya jo aap yahaan aaye
Dhanyawaad sanjay ji
bahut khub likha hai aapne....
achhi rachna ke liye badhai....
aapko apne blog ka pata de raha hoon, ummeed hai jaroor darshan honge..
http://i555.blogspot.com/
Shukriya Shekhar ji,
awashya aaunga
"कुछ सच कर दूँगा.
या कम से कम,
पहनूँगा सपनों के जूते,
तो तेज दौडूंगा."
:) yeh panktiyaan bahu pyaarui lagi avi... aapki rachnaon ki kghaas baat yeh bhi hoti hai ki kavita ke mool bhaav ke alaaa bhi bahut kuch hortaa hai saath le jaane ko...jaise ki iss pankt kaa sach.........
goolar kaa itnaa sunder prayog... maine to nahin dekaaa.... :)
Vartika ji,
Shukriya kahun to kam hoga..jyada shabd hain hi nahi.
Aapne itna kyun kah diya?
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