हर शाम जंगले से,
देखता था तुम्हे,
काटते हुए तरकारी.
नीली-पीली फ्राक,
गुलाबी सूट डाले,
दिन बदल बारी बारी.
देखता था अहाते में,
खटिया चढ़ के,
धोते तुम्हे बर्तन.
और हर रोज,
थाली चाँद से,
साफ़ होती थी.
देखता था छत पर,
निहारते तारों को,
हर रात तुम्हे.
और पकड़ ही,
लेता था तुम्हे,
ध्रुव तक आत़े.
देखता था रोज,
सफ़ेद चोटियों में,
स्कूल जाते तुम्हे.
और कनखियों से,
पकड़ता था तुमने,
प्रार्थना में गाते.
देखता था उचक,
उचक पकड़ते तुम्हे,
तरोई की फलियाँ.
कल ही मैं,
तीन फीट का,
नाप कर हुआ.
अबकी राखी से,
बांधोगी मुझे भी,
एक चमचम राखी दी?
बोलो, बोलो ना?
7 टिप्पणियाँ:
वाह ! बहुत सुन्दर ,,,,अच्छे और स्वच्छ विचार लिए भोले मन की अभिव्यक्ति दर्शाती ...सुन्दर और भोली कविता ....उम्दा रचना
bahut hi badhiyaa
aap donon ka haardik dhanyawaad
तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.
dhanyawaad Sanjay ji
kya baat hai ..sneh aur pyar to tapak raha hai isse
:)
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