तुमने नहीं लिखा,
तो लोग लिखते थे.
चिट्ठियाँ तुम्हे,
रोज, हर रोज.
तुमने लिखे गीत,
प्रणय के, प्रस्थान के.
उदय के, अवसान के.
तुमने लिखे शब्द,
मर्म के, ममता के.
क्षोभ के, अनुराग के.
जीवन के, मृत्यु की,
विषमता के.
तुमने लिखे दोहे,
चौपाई, क्षणिकाएँ,
ग़ज़ल, कविताएँ.
कहानियां और,
एक-आधे शेर.
सबने की प्रसंशा,
भूरि-भूरि, अघा,
नित्य, प्रतिदिन.
छप गई फिर,
तुम्हारी पुस्तक.
लिख रहे हैं,
समीक्षाएं समीक्षक.
अखबार के बारहवें,
पृष्ठ की सुर्ख़ियों,
में तुम्हारा नाम,
और रविवारीय में,
तस्वीर भी है.
कल पर्चे बाँटे गए,
तुम्हारे कवि सम्मलेन के.
और तुमने सबका,
मेरे सिवा सबका,
नाम गिन दिया,
धन्यवाद ज्ञापन में.
खैर!
घर के पीछे,
की बंसवाड़ी.
यहाँ वहाँ अटी,
दूब की क्यारी.
कौन देखता है,
कहो भला.
इन्ही से तो,
बना हूँ मैं.
पूर्वजन्म से है,
आदत हिकारत की.
जो कहते हैं,
बेकार कहते हैं.
हर घूरे के दिन,
नहीं बहुरते हैं.
ये कुछ लिखने की कोशिश की है तरु दी से विषय ले कर, तो उन्हें सबसे पहले शुक्रिया..
7 टिप्पणियाँ:
कुछ अजीब से एहसास हुए... घुरा तो वे होते हैं , जो सच से विलग होते हैं ,
ना लिखा नाम - अच्छा किया, क्योंकि जो सबसे अलग हो, उसे कोई क्या कहेगा !
कागज़ के मन की व्यथा को खूब उकेरा है...सुन्दर अभिव्यक्ति
वाह ! कागज़ की व्यथा सुन्दर शब्दों में बयां की है ......कविता सुन्दर बन पड़ी है .........सम्पूर्ण कविता लाजवाब
nice
are aviiiiiiiiiiiii......kya likh dala tumne yaar ... kaagaz is tarah shiqayat karega kabhi socha nahi tha.. ab sochta hun ..main to iska dhanyawad gyapan kar hi dunga... aur han taru ko meri aur se tahnku kehna.. :)
बहुत सुन्दर कविता है ! आपकी लेखनी में परिपक्वता है ... और आपका सौंदर्य बोध बहुत अच्छा है ...
मेरे ब्लॉग पर आकार टिपण्णी देने के लिए शुक्रिया !
aap sabhi ka bahut bahut shukriyaa yahaan tak aaane ke liye..
Protsaahan ke liye ashesh dhanyawaad :)
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