क्षणिकाएँ...


माँ...

फागुनी धूप,
तुम्हारी बतियाँ.
काली बदरी,
तोरी अँखियाँ.
अम्मा तेरी,
गोद बिछावन.
तेरी थपकी,
मेरी निंदिया.





लिखो...

एक रोज मिलो,
तो गीत लिखो.
जो रोज मिलो,
तो गीत लिखो.
जो मिलना,
मुश्किल हो जाए.
मेरी धड़कन,
पर प्रीत लिखो.






फन्ने खाँ....

वनिला-चाकलेट,
केसर-पिस्ता.
काजू अखरोट,
कप-कोन-स्लाइस.
इन सबके बीच,
जाने मेरी बर्फमलाई,
फन्ने खाँ आईसक्रीम,
कहाँ गुम गई?







असर...

आओ! जोर से छू लो,
मेरी पलकों को.
कुछ रोज इन पर,
तुम्हारी तस्वीर रहे.
तुम्हारी अँगुलियों पर हो,
मेरी बेरंग रोशनाई.









मैं और अब्रक...

लपेट बदन पर अब्रक,
कितने रोज धूप में काटे.
चौंधिया गए थे तुम,
फिर से ना देख पाए.
दोपहरी भी हंसती है,
नाकामी पर हमारी.





कर्फ्यू...

आज दुकान भी खुली थी,
थैला भी था साथ,
दुकान पर खिलौने भी.
क्या जवाब दूँगा टिंकू को?
बात बेबात आज,
कर्फ्यू क्यूँ नहीं लगता?








नशा...

वक़्त-बेवक्त के,
तुम्हारे किस्से.
वो हंसी-ठिठोली.
अब ढूंढता हो,
बदहवास हूँ.
उफ़! ये नशा,
तुम पर तो,
वैधानिक चेतावनी,
भी नहीं लिखी थी.






रंग भर दो...

लिखे कुछ शब्द,
कोरे से तुम्हारे नाम.
रंग भरो.
तुम्हारे रंगों का,
हमेशा से ही,
मुरीद हूँ मैं.

3 टिप्पणियाँ:

laveena rastoggi said...

vry nice....brilliant...keep it up..!!

स्वप्निल तिवारी said...

maa...nasha aur fanne khaan..sabse jyada pasand aaye avi .. :) behad achhi hain triveniyaan

Avinash Chandra said...

Aap donon ka bahut bahut shukriya