चोखा रंग...

रोजनामचा आता है,
शाम साढ़े सात बजे.
और लगभग उसी वक़्त,
हो जाया करते हो,
तुम नितांत निजी.

तुम्हारी चुप सी चुप,
मेरे फटे होंठो से,
झाँकने की तमाम,
कोशिशों में और,
फाड़ देती है उन्हें.

खून रिसता है,
बौखलाया पिनपिनाया सा.
और तुम कह,
देते हो मुझे,
चुपचाप आदमखोर,
खबर बनाने वाले,
खबरिये की तरह.

उस चुप से जूझता,
दौड़ता भागता,
जड़ हो गया हूँ.
और इस मौसम तो,
आये हैं पत्ते भी,
मुझे पर हिना के.

अब भी खबर देखते,
तुम बालकनी से ,
चाय तो नहीं गिराते.

वो चोखा रंग नहीं,
लहू होगा मेरा.

6 टिप्पणियाँ:

Ra said...

वाह ! इस बार तो कमाल !!!

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब .. कमाल की रचना है ...

दिगम्बर नासवा said...
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स्वप्निल तिवारी said...

achhi hai avi ..

Dhirendra Giri said...

bahut khoob..............

Avinash Chandra said...

Aap sabhi ka dhanyawaad