अंतिम चोट...

जब रक्त जमे,
और गाँठ बने.
सूखे धेले सा,
नस में बहे.

तब भी हे तम,
तुम ना हँसना.
मैं रुधिर में,
आग जला दूँगा.

सब रोम मेरे,
जब सो जाएँ.
स्पंदन और स्पर्श,
भी खो जाएँ.

तब भी बन,
काल नहीं डसना.
मैं गरल को,
मोम बना दूँगा.

मेरी जिव्हा पर,
गीत न हो.
सुर साज रहे,
संगीत न हो.

तुम अट्टहास,
नहीं करना.
मैं तड़ित से,
ताल बना दूँगा.

जो भाल तेज,
से रीता हो.
अनुभव झुर्री,
बन जीता हो.

तुम असि,
हाथ में ना रखना.
अपनी अस्थि से,
वज्र बना दूँगा.

इन लख से,
बहते पारे हों.
जीवन केवट,
सब हारे हों.

भीषण हुंकार,
नहीं भरना.
श्वास से पावक,
बाण चला दूँगा.

जो धरा तनिक,
विचलित सी लगे.
और पग मुझको,
मुझे ही से ठगे.

मुझे जान अचेतन,
अहं नहीं धरना.
मृदा से पाञ्चजन्य,
मैं बना लूँगा.

जो शिशिर रवि,
एक साथ बुझें.
लोचन को मेरे,
कुछ ना सूझे.

मुझको मृत नहीं,
समझ लेना.
तुम्हे आत्मदीप,
से मारूँगा.

4 टिप्पणियाँ:

रश्मि प्रभा... said...

unmukt prawaah

Ra said...

सुन्दर शब्दों और भावो से सजी सुन्दर रचना ,,,,कुछ व्यर्थ नहीं सब कुछ लाजबाव लिखा है ,,,,आपकी इस कृति को नमन !!!

दिगम्बर नासवा said...

सुंदर भाव ... अच्छा शब्द संयोजन है ...

Avinash Chandra said...

shukriya :)