फूल!
तुम पर तो,
रोज ही आया,
करते हैं ना?
कितने भाई बन्धु,
दोस्त-सखा, सजनी-प्रिया,
हैं परिवार में तुम्हारे.
स्वच्छ वायु,
शीतल परिवेश.
नाना बीज-खाद,
साधन संपन्न,
अगणित चारण,
मालिन-कुम्हारन.
और तो और,
सूर्य की भी सिर्फ,
कोमलांगी पुत्री किरण,
ले पाते हो तुम.
भ्रमर-अलि-पराग,
चींटी-बुलबुल-कोयल.
बिन तौलिये नहाई,
दूब पर बैठे,
कुछ छोटे झींगुर,
तितलियों के संग,
अच्छे दीखते हो तुम.
सच निकुंज!
मैंने सदैव तुम्हारी,
हँसी में हँसी देखी.
और तुम!
बाज नहीं आये,
मेरा माखौल उड़ाने से.
थामो कभी रेत,
जो थमती ही नहीं.
कल्पना करो सिर्फ,
भूखे-रोते गिद्धों,
के सानिध्य की.
जैसे प्लेग के बाद,
किसी रोज केवल,
तुम बचो परिवार में.
और देवगण भी,
छोड़ जाएँ,
तुम्हारे पास,
सूर्य के हठी पुत्र,
महाताप को.
तुम्हारे हर पुष्प-किसलय,
उसी क्षण भस्म ना हों,
सिर्फ सोच कर, तो कहना.
हाँ, निकुंज!
मैं महाबली,
कीकर का फूल,
बोल रहा हूँ.
9 टिप्पणियाँ:
फूल से बातें......यह कितनी ख़ास बात है
किकर के फूल की व्यथा...बहुत अच्छी तरह से कही है...
मंगलवार 15- 06- 2010 को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है
http://charchamanch.blogspot.com/
अविनाश,
बहुत खूब...
थामो कभी रेत,
जो थमती ही नहीं.
कल्पना करो सिर्फ,
भूखे-रोते गिद्धों,
के सानिध्य की.
जैसे प्लेग के बाद,
किसी रोज केवल,
तुम बचो परिवार में.
और देवगण भी,
छोड़ जाएँ,
तुम्हारे पास,
सूर्य के हठी पुत्र,
महाताप को.
तुम्हारे हर पुष्प-किसलय,
उसी क्षण भस्म ना हों,
सिर्फ सोच कर, तो कहना.
सटीक.. जिसने कभी दुःख कि तपिश न झेली हो..उसे तो दूसरों के दुःख में भी हंसी ही आती है ...
बेहतरीन प्रस्तुति
स्नेह
मुदिता
बहुत बढि़या!
बहुत खूब...
बातें फूल से......
फूलों के माध्यम से जीवन का सार लिख दिया है ...
aap sabhi ka haardik dhanyawaad
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