आना मिलने,
और इस बार,
हँस देना सच में.
मिलाना हाथ,
और भींच देना,
जोर से, कस के.
ढलकाना आँसू,
पर इस बार,
सच्चे हों, गर्म हों.
रिश्ते की गर्माहट,
एक बार भी,
दिखे तो यहाँ.
मरणोपरांत सही...
अपने कहे के लिए अक्खडपन रखना मेरा नियत व्यवहार है, किन्तु आलोचना के वृक्ष प्रिय हैं मुझे।
ऐसा नहीं था कि प्रेम दीक्षायें नहीं लिखी जा सकती थीं, ऐसा भी नहीं था कि भूखे पेटों की दहाड़ नहीं लिख सकता था मैं, पर मुझे दूब की लहकन अधिक प्रिय है।
वर्ण-शब्द-व्याकरण नहीं है, सुर संगीत का वरण नहीं है। माँ की साँसों का लेखा है, जो व्याध को देता धोखा है।
सोंधे से फूल, गुलगुली सी माटी, गंगा का तीर, त्रिकोणमिति, पुरानी कुछ गेंदें, इतना ही हूँ मैं। साहित्य किसे कहते हैं? मुझे सचमुच नहीं पता।
स्वयं के वातायनों से बुर्ज-कंगूरे नहीं दिखते। हे नींव तुम पर अहर्निश प्रणत हूँ।
8 टिप्पणियाँ:
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
marne se pahle.... prapy mrityu se pahle hota hai
क्या लेखन कला है ?कमाल है ........एकदम बाँध कर रखती है.
aap sabhi ka bahut bahut dhanyawaad
कल आपकी रचना चर्चा मंच पर होगी कृप्या देखें.
आभार
अनामिका
mrityu si hi kshanik aur usi ki tarah teekhi aur grimaamayi lagi yeh rachnaa...
भावपूर्ण!
aap sabhi ka aabhar
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