हे वचन अब टूटने में,
ही तेरा सम्मान है.
लांछनों का घाव खाकर,
जीने में क्या मान है.
मुई आँखें, छुई बातें,
छुईमुई सी साँझ-रातें.
ढल गई हैं, बुझ गई हैं,
मूक हैं, निष्प्राण हैं.
कोयलें अब नहीं गातीं,
विधुर दिया, विधवा है बाती.
पर कुमुदिनी के भी जैसे,
सूर्पनखा के कान हैं.
मैंने जो बैराग माँगा,
उसने मेरा साथ माँगा.
मन उसी में रम गया था,
मूढ़ है, अज्ञान है.
मेढ़कों के टेरने से,
मैंने जो सावन बसाया.
सलिल की एक बूँद से भी,
आज तक अनजान है.
जब की सृष्टि सती होगी,
अग्नि जल के मति होगी.
ना तजूँगा मैं ये पाणि,
जो की तन में प्राण हैं.
ऐसी जो सौगंध खाई,
नियति की नियति भुलाई.
भूल गया था समय को,
सबसे जो बलवान है.
कोई काल था या काल मेरा,
जिसने उसे घूम घेरा.
उसके किसी गीत अब,
नहीं मेरा नाम है.
पर्ण अब अवशेष ही है,
वृंत जो निष्प्राण है.
हे वचन अब टूटने में,
ही तेरा सम्मान है.
गीत-शब्द, ज्योति-शलभ,
जीवन के जीवंत पथ,
पर चलते चुभे कंटक.
अभीष्ट दावानलों,
में भी मैं तैरा.
किन्तु हे चिर!
तुमने नित्य विहान,
रश्मियों संग आ.
मल दिया मुझ पर,
ऊर्जा का नव,
परिमल बतास.
उर में भरे,
अदम्य निष्कूट,
सलिल ने जब,
तोड़ कर बाँध.
लिया संकल्प,
लेने का विदा,
दृगों से मौन,
चुपचाप बह.
असंख्य विहग,
आत्मा की आत्मीयता के.
उड़ चले हो,
वैरागी झंझा से.
और लौटाए गए,
वस्तुतः खाली हाथ.
वितान के कोने बैठे,
निर्मोही परान्जय द्वारा.
फिर भी जैसे,
उद्पादित हुए हों.
अंतस में कहीं,
नवकार्य दक्ष परिण.
एवं छिछला सा,
बौराया मन हो गया,
धवल स्वच्छ जैसे,
मिल गया हो,
एक परम परितोष.
मेरे फेनिल व्यक्तित्व,
को जैसे पिनाकी ने,
कर डाला हो शुभ्र.
और स्वयं पूनिश ने,
भर दिए हों अंक में,
पुखराज-माणिक-प्रवाल.
तुम्हारे प्रभास का प्रभाव,
करता आया पोषित,
मेरे अंतर की रिद्धिमा को.
जैसे पवित्र पायस के,
घनघोर पायोद बन.
सुरभित करते हों,
पीयूष पराग कण.
जेठ के प्रभाकर से भी,
इन्द्रधनुष बुनवाये तुमने.
प्रदोष के अंतिम प्रद्योत,
पर भी तुमने प्रफुल,
प्रचुर प्रचेतस दीप्त किया.
पेरूमल-पवान्ज-पदमज,
होंगे नितांत ऊपर,
श्रेष्ठ अपनी जगह.
किन्तु हे पनमोली,
कल्पों करूँ पूजित,
वह प्रणव-प्राण-प्रकाश,
तुम ही हो जननी.
*********************************
परिमल= खुशबू
परान्जय= वरुणदेव, समुद्र के देव
परिण= गणेश
रिद्धिमा= प्रेम का सोता
परितोष= संतोष की अनुभूति
पिनाकी= शिव/शम्भू
पूनिश= पवित्रता के देव
प्रभास= चमक
पायोद= बादल
प्रदोष= अँधेरा
प्रद्योत= चमक
प्रचेतस= बल
पेरूमल=वेंकटेश/विष्णु
पवान्ज=हनुमान/शिव
पदमज=ब्रम्हा
पनमोली=मीठा बोलने वाली
जीवन के जीवंत पथ,
पर चलते चुभे कंटक.
अभीष्ट दावानलों,
में भी मैं तैरा.
किन्तु हे चिर!
तुमने नित्य विहान,
रश्मियों संग आ.
मल दिया मुझ पर,
ऊर्जा का नव,
परिमल बतास.
उर में भरे,
अदम्य निष्कूट,
सलिल ने जब,
तोड़ कर बाँध.
लिया संकल्प,
लेने का विदा,
दृगों से मौन,
चुपचाप बह.
असंख्य विहग,
आत्मा की आत्मीयता के.
उड़ चले हो,
वैरागी झंझा से.
और लौटाए गए,
वस्तुतः खाली हाथ.
वितान के कोने बैठे,
निर्मोही परान्जय द्वारा.
फिर भी जैसे,
उद्पादित हुए हों.
अंतस में कहीं,
नवकार्य दक्ष परिण.
एवं छिछला सा,
बौराया मन हो गया,
धवल स्वच्छ जैसे,
मिल गया हो,
एक परम परितोष.
मेरे फेनिल व्यक्तित्व,
को जैसे पिनाकी ने,
कर डाला हो शुभ्र.
और स्वयं पूनिश ने,
भर दिए हों अंक में,
पुखराज-माणिक-प्रवाल.
तुम्हारे प्रभास का प्रभाव,
करता आया पोषित,
मेरे अंतर की रिद्धिमा को.
जैसे पवित्र पायस के,
घनघोर पायोद बन.
सुरभित करते हों,
पीयूष पराग कण.
जेठ के प्रभाकर से भी,
इन्द्रधनुष बुनवाये तुमने.
प्रदोष के अंतिम प्रद्योत,
पर भी तुमने प्रफुल,
प्रचुर प्रचेतस दीप्त किया.
पेरूमल-पवान्ज-पदमज,
होंगे नितांत ऊपर,
श्रेष्ठ अपनी जगह.
किन्तु हे पनमोली,
कल्पों करूँ पूजित,
वह प्रणव-प्राण-प्रकाश,
तुम ही हो जननी.
*********************************
परिमल= खुशबू
परान्जय= वरुणदेव, समुद्र के देव
परिण= गणेश
रिद्धिमा= प्रेम का सोता
परितोष= संतोष की अनुभूति
पिनाकी= शिव/शम्भू
पूनिश= पवित्रता के देव
प्रभास= चमक
पायोद= बादल
प्रदोष= अँधेरा
प्रद्योत= चमक
प्रचेतस= बल
पेरूमल=वेंकटेश/विष्णु
पवान्ज=हनुमान/शिव
पदमज=ब्रम्हा
पनमोली=मीठा बोलने वाली
मेरे पुराने टूटे,
जीर्ण नहीं कहता.
बाबू जी के स्नेह,
माँ के चावलों,
संग रहा है,
जीर्ण कैसे हो?
हाँ टूटा है,
मेरी धमाचौकड़ी से.
उसी टूटे छज्जे,
पर आज भी.
आ बैठती है,
आरव आरुषी नित्य.
और आलिंगनबद्ध,
ओस की बूँदें.
ले लेती हैं विदा,
सुथराई काई से.
जो पसर गई है,
बरसों के सानिध्य से.
उनके संघनित,
आद्र से भाव,
करते हैं उत्पादित,
शांत मूक रव.
और फिर बैठ,
जाते हैं गदरा,
भुअरा-करिया कर.
प्रेम में जलन की,
ये गति तर्कसंगत है.
चलने की जल्दी में,
घुटने मेरे भी.
हुए थे काले,
अब भी हैं.
उसी छज्जे पर,
माँ के चावलों,
का मूल्य लौटाने,
कोई चोखी चिड़िया.
संवेदना भरे सुदूर,
निकुंज से ले आई,
पीपल के बीज.
नासपीटे वृंत ने,
न दिए होंगे,
पुष्प-पराग कण.
लो!
मरने से पहले,
काई ने भी,
पुत्र मान सारी,
आद्रता कर दी,
उस बीज के नाम.
श्रेयस, अर्ध-मुखरित,
नव पल्लव आये हैं,
पीले-भूरे जैसे,
बछिया के कान हों.
और दी ले आयीं,
एक उथला कटोरा,
पानी का, जून है,
भन्नाया सा.
क्रंदन-कलरव-कोलाहल.
लो पूरा हुआ,
मेरे छज्जे का,
लयबद्ध-सुरमयी कानन.
चाँद का टुकडा...
अम्मा के कलेजे,
से जो गिरा.
वो ही छोटा सा,
टुकडा हूँ.
माँ खुद को,
चाँद नहीं कहती.
मैं फिर भी,
चाँद का टुकडा हूँ.
टूटा मग...
दो बरस कहूँ,
या कहूँ कोई,
पाई* करोड़ पल.
आँखें बरसेंगी,
शावर में,
जो तुम न,
रहोगे कल.
ले लो...
मैं लिखूँ,
तुम पढो,
कुछ कहो.
नहीं गुन,
पाने पर,
प्रेम धुन.
जाओ खीज.
इससे अच्छा,
देखूँ चार क्षण.
दे जाऊं ,
शब्द बीज.
पिता...
जिस रोज नहीं खाता,
या जाता हूँ भीग.
या नहीं समझ पाता कुछ,
उस दिन आत़े हैं,
उनके ख़ास शब्द.
बिन माँगे वर देना,
खासियत है मेरे खुदा की.
एक बूँद....
अपनी चंद्रकलाएँ नहीं,
कोई चम्पई लावण्य नहीं.
नेह की एक रुग्ण,
झीरी ही गिरा दो.
जागृत होगा उष्ण जीवन,
तृप्त हो चूना पत्थर में.
तुम्हारी अमानत...
अखरती थी तुम्हारी चुप,
तो चुरा लिए मैंने,
तुम्हारी खामोशी के फूल.
मेरी बात-बेबात ख़ामोशी,
अब खटकती है तुम्हे.
निष्प्राण स्नेह...
यदि मेरा स्नेह,
लगता है परिधि,
तो बन्धु!
तोड़ दो इसे.
आक्रान्त जीवन से,
स्नेह निष्प्राण भला.
मालती के फूल...
मालती के फूल,
नहीं खिलते बंध,
लक्ष्मण रेखाओं में.
उड़ने दो पराग कण,
सुदूर बियावानों में.
आँखें बिटिया की भी,
रखती रोशनाई हैं.
रोने दो...
बहने दो आज,
या उड़ने दो वाष्प.
जो सूखे आँखों,
का बूढा सागर.
तो चुन लेना,
अपनी प्रीत के,
बहुत मुक्ताफल,
छुपा रखे हैं.
यकीन रखो...
मेरे सारे शब्द,
हर एक गीत,
लगने लगे अप्रमाणिक.
तो निःसंकोच माँग लेना.
यह सिन्धु हर एक,
बूँद लौटा देगा.
बंटवारा...
कागज़ की नाव,
कागज़ का मैं,
कागज़ के तुम,
नहीं डूबे किसी बारिश.
कागज़-बंटवारा,
मैं-तुम जैसे,
सूखी नदी में,
डूब के मरना.
पाई= Pi = 3.14
निर्मोही दावानल,
मन का.
जो धीरे धीरे,
रिस जाता.
तो सिक्त प्रेम,
की सेवा में.
पलकों की,
चादर बिछ्वाता.
खुरदरे बाँस के,
पत्तों की.
इक दूरबीन ले,
झूठी सी.
तुमको देखा,
करती आँखें.
कभी थोडा और,
कभी ज्यादा.
केसर लेकर,
अरुणाई से.
तेरा पूछ पता,
पुरवाई से.
मैं खुशबू,
अपने होने की.
गँगा-कवाच,
से भिजवाता.
किन्तु या मधुक्षण,
हो न सका.
लावा गुलाब को,
बो न सका.
अब गरल,
टपकता रहता है.
इन पलकों से,
आधा-आधा.
तुम आत़े तो,
आता सावन.
आषाढ़-जेठ से,
लड़ कर के.
लेकिन हम-तुम,
जो विमुख हुए.
सावन को,
सावन से बाधा.
यह किंचित भी,
इनकार नहीं.
सच! तुममे कोई,
विकार नहीं.
यह समय क्षितिज,
सी बेला है.
आधी धरती,
अम्बर आधा.
मन का.
जो धीरे धीरे,
रिस जाता.
तो सिक्त प्रेम,
की सेवा में.
पलकों की,
चादर बिछ्वाता.
खुरदरे बाँस के,
पत्तों की.
इक दूरबीन ले,
झूठी सी.
तुमको देखा,
करती आँखें.
कभी थोडा और,
कभी ज्यादा.
केसर लेकर,
अरुणाई से.
तेरा पूछ पता,
पुरवाई से.
मैं खुशबू,
अपने होने की.
गँगा-कवाच,
से भिजवाता.
किन्तु या मधुक्षण,
हो न सका.
लावा गुलाब को,
बो न सका.
अब गरल,
टपकता रहता है.
इन पलकों से,
आधा-आधा.
तुम आत़े तो,
आता सावन.
आषाढ़-जेठ से,
लड़ कर के.
लेकिन हम-तुम,
जो विमुख हुए.
सावन को,
सावन से बाधा.
यह किंचित भी,
इनकार नहीं.
सच! तुममे कोई,
विकार नहीं.
यह समय क्षितिज,
सी बेला है.
आधी धरती,
अम्बर आधा.
आक्रोश चाप पर,
धीर धरा.
मैंने आँखों में,
शूल भरा.
सौ गजों सी,
एक चिंघाड़ भरी.
और बीच समर,
में पाँव धरा.
कितने ही शत्रु,
काट दिए.
कोटि सर धरा पर,
पाट दिए.
नहा लहू के,
सोते में.
मैं चन्द्रप्रभा में,
रहा खडा.
हाँ देवों मुझको,
रक्ष कहो.
मानव हैं मेरे,
भक्ष कहो.
किन्तु इस सिंह,
ने बहुत दिवस.
था कूकर से,
अपमान सहा.
जो कहा तुम्हे,
माने ही नहीं.
पस की पीड़ा,
जाने ही नहीं.
अब हा, हा,
करते फिरते हो.
जो ज्वाला सेतु,
टूट बहा.
चुप था तो,
मुझे कायर जाना.
विवेक को पौरुष,
हत माना.
कर जोड़ विनती,
क्यूँ करते हो?
जब ध्रुव ने,
सूर्य पे पाँव धरा.
आज सब ठीक है.
आज ले लो!
माँग लो लावण्य,
मेरा यौवन.
करूँगा दीक्षित,
निर्धूम स्वच्छ प्रणय से,
स्मिता के साथ.
किन्तु!
एक रोज अकुलाया,
भकुआया सा मेरा,
गोत्र वाष्पित हो,
निकले पोरों से.
और आत्मा का,
लुहार झोंकता हो,
कोयले की चट्टानें,
स्तिमित निरंतर,
हिय की धौंकनी में.
अम्बर की मानिंद,
दृगों के वितान.
जब सूख जाएँ,
भटकटैयों से.
वो भी जाड़ों में,
पाला खाए हुए.
आजानुभुज मेरे,
शर-चाप तो क्या.
सरकंडे उठाते भी,
विस्मृत लगें.
रिमझिम श्रावण भी,
हो जाए भक्क या,
नुकीला तुषार बन,
कंटकाकीर्ण हो.
सुदूर हिमाद्री पर,
आच्छादित श्वेतिमा,
और उस पर झरती,
दिनकर की छटास.
ये भी रस ना दे,
आक्रांत करें.
मानो कोई राजहंस,
मार गिराया हो,
अघोर बहेलिये ने.
मुदित-तिरोहित,
यज्ञ की ऋचाएँ.
और लब्ध मंत्रोच्चार.
जब लगने लगे,
तृषित ढोंग की,
अदम्य यवनिका.
लगा अलक मेरी,
अस्थिविहीन अंगुलियाँ.
बैठें लिखने जब,
स्वेद से ग्रन्थ.
तब न कहना.
उस क्षण मुझे,
कोई भी स्वर-रव,
सुनाई न देगा.
प्रेम-शिखाओं की हरीतिमा,
व सुधांशु के किसलय,
अबूझ होंगे मुझे.
विकट तम से लड़ते,
टूटती धमनियों को,
रण से इतर,
और कुछ भी,
सुझाई न देगा.
फूल!
तुम पर तो,
रोज ही आया,
करते हैं ना?
कितने भाई बन्धु,
दोस्त-सखा, सजनी-प्रिया,
हैं परिवार में तुम्हारे.
स्वच्छ वायु,
शीतल परिवेश.
नाना बीज-खाद,
साधन संपन्न,
अगणित चारण,
मालिन-कुम्हारन.
और तो और,
सूर्य की भी सिर्फ,
कोमलांगी पुत्री किरण,
ले पाते हो तुम.
भ्रमर-अलि-पराग,
चींटी-बुलबुल-कोयल.
बिन तौलिये नहाई,
दूब पर बैठे,
कुछ छोटे झींगुर,
तितलियों के संग,
अच्छे दीखते हो तुम.
सच निकुंज!
मैंने सदैव तुम्हारी,
हँसी में हँसी देखी.
और तुम!
बाज नहीं आये,
मेरा माखौल उड़ाने से.
थामो कभी रेत,
जो थमती ही नहीं.
कल्पना करो सिर्फ,
भूखे-रोते गिद्धों,
के सानिध्य की.
जैसे प्लेग के बाद,
किसी रोज केवल,
तुम बचो परिवार में.
और देवगण भी,
छोड़ जाएँ,
तुम्हारे पास,
सूर्य के हठी पुत्र,
महाताप को.
तुम्हारे हर पुष्प-किसलय,
उसी क्षण भस्म ना हों,
सिर्फ सोच कर, तो कहना.
हाँ, निकुंज!
मैं महाबली,
कीकर का फूल,
बोल रहा हूँ.
एक हफ्ते घर पर रहूँगा..आना जरा कम होगा.. :)
चुभते पन्ने...
डायरी में तहाए,
पन्नों का विष.
याद नहीं किस,
आँख से बहा था.
अब कमबख्त दोनों,
आँखों में चुभता है.
माँ हार जाती है.....
आज फिर से,
हार गई माँ,
बहस में मुझसे.
पापा से, भैया से,
भाभी से, छुटके से,
कल तो गुडिया,
तक से हारी.
फिर मेरे कांच तोड़ने पर,
क्यूँ कहती थीं,
मिसेज दुबे?
जीतना असंभव है आपसे.
नमकीन लाचीदाने...
सुना है रोती थीं,
सोन परियां तो.
बनते थे रोज,
मोती के खजाने.
कल रात छलके,
अम्मा के दो आँसू.
आज प्रसाद में थे,
दो नमकीन लाचीदाने.
पिंजरा...
होता विहग तो,
विचरता स्वछन्द,
करता कलरव,
चूम लेता कभी,
सूरज की लाली.
देखता दूकान में,
टंगा पिंजरा.
और सोचता,
मैं इंसान ही भला था.
नीली कलम....
चोट लगी, लहू जमा,
नीला पड़ गया.
सोचता हूँ जाने,
कलम को कितनी,
चोट लगी होगी.
कितना भी लिखूँ,
लाल ही नहीं होता.
फिर भी काम आऊँगा..
मेरे अवशेष जला डालो,
और गूंथो मेरी राख तनिक.
दो रोटी उनकी बनवाना,
खा लो तो होगी भूख क्षणिक.
हल्का सा लिखो...
प्रशंसा की चाह में,
क्लिष्ट, अपाच्य रोज,
लिखते हो काहे.
सीखो कुछ कपास से,
फूटो और उड़ो,
बन रुई के फाहे.
चुभते पन्ने...
डायरी में तहाए,
पन्नों का विष.
याद नहीं किस,
आँख से बहा था.
अब कमबख्त दोनों,
आँखों में चुभता है.
माँ हार जाती है.....
आज फिर से,
हार गई माँ,
बहस में मुझसे.
पापा से, भैया से,
भाभी से, छुटके से,
कल तो गुडिया,
तक से हारी.
फिर मेरे कांच तोड़ने पर,
क्यूँ कहती थीं,
मिसेज दुबे?
जीतना असंभव है आपसे.
नमकीन लाचीदाने...
सुना है रोती थीं,
सोन परियां तो.
बनते थे रोज,
मोती के खजाने.
कल रात छलके,
अम्मा के दो आँसू.
आज प्रसाद में थे,
दो नमकीन लाचीदाने.
पिंजरा...
होता विहग तो,
विचरता स्वछन्द,
करता कलरव,
चूम लेता कभी,
सूरज की लाली.
देखता दूकान में,
टंगा पिंजरा.
और सोचता,
मैं इंसान ही भला था.
नीली कलम....
चोट लगी, लहू जमा,
नीला पड़ गया.
सोचता हूँ जाने,
कलम को कितनी,
चोट लगी होगी.
कितना भी लिखूँ,
लाल ही नहीं होता.
फिर भी काम आऊँगा..
मेरे अवशेष जला डालो,
और गूंथो मेरी राख तनिक.
दो रोटी उनकी बनवाना,
खा लो तो होगी भूख क्षणिक.
हल्का सा लिखो...
प्रशंसा की चाह में,
क्लिष्ट, अपाच्य रोज,
लिखते हो काहे.
सीखो कुछ कपास से,
फूटो और उड़ो,
बन रुई के फाहे.
बादल आये,
आकर छाए.
राह निहारे,
रही धरा.
सब भूरिया कर,
लौटे बादल.
इन्द्रधनुष का,
खून बहा.
पोशम्पा ने,
रात बुहारी.
धान ने खोदी,
खुद ही क्यारी.
दिखा के ठेंगा,
लौटे बादल.
खम्भा बिल्ली के,
नाखून थमा.
जाल तहाए,
मछुआरों ने.
मीनों ने,
ऐय्याशी की.
बाज बने और,
लौटे बादल.
घोंघा हर तट,
रेंग रहा.
जा दुबका हर,
सिंह गुफा में.
दादुर को,
साम्राज्य थमा.
बजा के पोंगा,
लौटे बादल,
नाचे बोलो,
मोर कहाँ?
प्यासी वसुधा,
प्यासे पक्षी.
सूखा किसलय,
बोल रहा.
सूखा सूखा,
छितराया है.
इन्द्रधनुष का,
खून बहा.
आकर छाए.
राह निहारे,
रही धरा.
सब भूरिया कर,
लौटे बादल.
इन्द्रधनुष का,
खून बहा.
पोशम्पा ने,
रात बुहारी.
धान ने खोदी,
खुद ही क्यारी.
दिखा के ठेंगा,
लौटे बादल.
खम्भा बिल्ली के,
नाखून थमा.
जाल तहाए,
मछुआरों ने.
मीनों ने,
ऐय्याशी की.
बाज बने और,
लौटे बादल.
घोंघा हर तट,
रेंग रहा.
जा दुबका हर,
सिंह गुफा में.
दादुर को,
साम्राज्य थमा.
बजा के पोंगा,
लौटे बादल,
नाचे बोलो,
मोर कहाँ?
प्यासी वसुधा,
प्यासे पक्षी.
सूखा किसलय,
बोल रहा.
सूखा सूखा,
छितराया है.
इन्द्रधनुष का,
खून बहा.
आना मिलने,
और इस बार,
हँस देना सच में.
मिलाना हाथ,
और भींच देना,
जोर से, कस के.
ढलकाना आँसू,
पर इस बार,
सच्चे हों, गर्म हों.
रिश्ते की गर्माहट,
एक बार भी,
दिखे तो यहाँ.
मरणोपरांत सही...
जब रक्त जमे,
और गाँठ बने.
सूखे धेले सा,
नस में बहे.
तब भी हे तम,
तुम ना हँसना.
मैं रुधिर में,
आग जला दूँगा.
सब रोम मेरे,
जब सो जाएँ.
स्पंदन और स्पर्श,
भी खो जाएँ.
तब भी बन,
काल नहीं डसना.
मैं गरल को,
मोम बना दूँगा.
मेरी जिव्हा पर,
गीत न हो.
सुर साज रहे,
संगीत न हो.
तुम अट्टहास,
नहीं करना.
मैं तड़ित से,
ताल बना दूँगा.
जो भाल तेज,
से रीता हो.
अनुभव झुर्री,
बन जीता हो.
तुम असि,
हाथ में ना रखना.
अपनी अस्थि से,
वज्र बना दूँगा.
इन लख से,
बहते पारे हों.
जीवन केवट,
सब हारे हों.
भीषण हुंकार,
नहीं भरना.
श्वास से पावक,
बाण चला दूँगा.
जो धरा तनिक,
विचलित सी लगे.
और पग मुझको,
मुझे ही से ठगे.
मुझे जान अचेतन,
अहं नहीं धरना.
मृदा से पाञ्चजन्य,
मैं बना लूँगा.
जो शिशिर रवि,
एक साथ बुझें.
लोचन को मेरे,
कुछ ना सूझे.
मुझको मृत नहीं,
समझ लेना.
तुम्हे आत्मदीप,
से मारूँगा.
और गाँठ बने.
सूखे धेले सा,
नस में बहे.
तब भी हे तम,
तुम ना हँसना.
मैं रुधिर में,
आग जला दूँगा.
सब रोम मेरे,
जब सो जाएँ.
स्पंदन और स्पर्श,
भी खो जाएँ.
तब भी बन,
काल नहीं डसना.
मैं गरल को,
मोम बना दूँगा.
मेरी जिव्हा पर,
गीत न हो.
सुर साज रहे,
संगीत न हो.
तुम अट्टहास,
नहीं करना.
मैं तड़ित से,
ताल बना दूँगा.
जो भाल तेज,
से रीता हो.
अनुभव झुर्री,
बन जीता हो.
तुम असि,
हाथ में ना रखना.
अपनी अस्थि से,
वज्र बना दूँगा.
इन लख से,
बहते पारे हों.
जीवन केवट,
सब हारे हों.
भीषण हुंकार,
नहीं भरना.
श्वास से पावक,
बाण चला दूँगा.
जो धरा तनिक,
विचलित सी लगे.
और पग मुझको,
मुझे ही से ठगे.
मुझे जान अचेतन,
अहं नहीं धरना.
मृदा से पाञ्चजन्य,
मैं बना लूँगा.
जो शिशिर रवि,
एक साथ बुझें.
लोचन को मेरे,
कुछ ना सूझे.
मुझको मृत नहीं,
समझ लेना.
तुम्हे आत्मदीप,
से मारूँगा.