बात सिन्धु की...

क्या?
बहुत खारा है,
अस्तित्व मेरा?
कभी बाहर निकलो.
क्या नदी किनारे,
रहते हो डूबे,
मिनरल वाटर में.

सुरा मधु, शरबत,
से ऊपर उठो तनिक.
जरा दौड़ो विपरीत,
सूर्य के दोपहरी में.
निकलता तो होगा,
तुम्हे भी पसीना.

खाओ ठोकरें खींचते,
जीवन की प्रत्यंचा.
अरे गिरो, संभलो.
कभी अतिरेक में,
मनाओ हर्ष-विषाद.
आंसू तो अवश्य,
बहते ही होंगे ना?

हल खींचा है कभी?
बिच्छू ने डंक,
नहीं मारा कभी,
किसी बरसात में?
काँटें तो चुभे होंगे,
गुलाब के कभी?
कभी अंगुली चूसना,
तुरंत रुक जाएगा,
बहना लहू का.

स्वाद चख लो,
तीनों का तब,
अवश्य मिलना मुझसे.
खारे तो कहीं अधिक,
मुझे तुम लगते हो.
फिर हे मनुज!
हर प्रहर नमक,
मेरा क्यूँ चखते हो?

7 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अविनाश,

बहुत गज़ब कि सोच लाये हो..आंसू, पसीना , और लहू.....शायद सागर से ज्यादा ही खारे होते हैं....बहुत खूब सुन्दर अभिव्यक्ति....

रोहित said...

"स्वाद चख लो,
तीनों का तब,
अवश्य मिलना मुझसे.
खारे तो कहीं अधिक,
तुम लगते हो मुझे.
फिर हे मनुज!
हर प्रहर नमक,
मेरा क्यूँ चखते हो?
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भैया ,जीवन की गूढ़तम सन्देश देती ये कविता नए माएने भी स्थापित करती है....
सच है खारे हम मनुज है आंसू, पसीना , और लहू से

Avinash Chandra said...

Sangeeta ji

Rohit

Aaplogon ko rachna pasand aayi, achchha laga

शरद कोकास said...

वाजिब सवाल है यह समुद्र का । अच्छी रचना ।

mridula pradhan said...

achchi lagi.

Avinash Chandra said...

Sharad Ji

Mridula Ji

Aap dono ka hriday se dhanyawaad

Taru said...

Avinash.......bahut khoob jawaab diya hai..mazaa aa gaya hai......lajwaab kar diya hai nindak ko......woh baat hai na..kisi ki tarah ek ungi uthao to teen aapki taraf hi hoti hain...:)

bahut khoob likha hai....har drishti se sunder lagi rachna.....Badhaayi..Glod Bless You