कितनी बार सोचा,
छू आऊँ तुम्हे मैं.
तर्जनी, अंगूठा,
अनामिका या कलाई.
पर ये साँझ भी ना,
बहुत देर से आती हैं.
रुकती है, छूता हूँ,
पर कर पाऊँ महसूस,
नहीं ठहरती उतनी देर.
रोज सोचता हूँ,
क्या सच में मिले थे,
हम कल क्षितिज पर,
क्या सच में वसुन्धरा?
1 टिप्पणियाँ:
बहुत खूबसूरत भाव,..सुन्दर प्रस्तुति
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