फर्क (लघु कविता)....

एक ही मिटटी,
एक ही मूल्य,
एक ही शिल्प,
एक सा चीर,
एक ही ताप,
एक ही छाया,
एक आद्रता,
एक ही घुमाव,
एक ही नाप,
फिर भी यहाँ,
शीतलता नहीं.
माँ की रामनवमी,
के कलश और,
मेरी गर्मी के घड़े में,
इतना फर्क लाज़मी है.

3 टिप्पणियाँ:

रश्मि प्रभा... said...

bilkul lajmi hai ye fark......

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

तुम्हारी लेखनी में हमेशा प्रखरता रहे....बहुत सुन्दर भाव....

Apanatva said...

sunder bhav..........