बहुत भारी हो चला है,
बोझ इन साँसों का.
गीले पंखों की उड़ान,
सही अब नहीं जाती.
युगों से चल रहे,
आत्मा के रण में.
मुठ्ठी शमशीर पर,
धरी अब नहीं जाती.
कैसा ये यज्ञ जहां,
अग्नि, हवन होम भी मैं.
किसी वेद की ऋचाएँ,
पढ़ी अब नहीं जाती.
कर्ण रोज चीखते हैं,
नेत्र कोसते हैं, उनकी.
करुण स्वर लहरियाँ,
सही अब नहीं जाती.
नीरव गीले-शुष्क दिवस,
संध्या के अतिशय अवसान.
अकारण ये सूखी बातें,
कही अब नहीं जाती.
चितेरे से शब्द कुछ,
जो आत्मा पर गढ़े हैं.
कोई क्षणिका तक उनसे,
गढ़ी अब नहीं जाती.
बरसता है जब कभी,
अन्दर का आसमान.
गीले पंखों की उड़ान,
सही तब नहीं जाती.
1 टिप्पणियाँ:
ghazab ka chitran hai..aur akhiri 4 lines to bas ultimate............bahut si ankahii peedaon ko shabd diye tumne...shukriyaaaaaaaaa is kavita k liye..........:)
Bless you Motuu
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