अजेय....


अब तो याद भी नहीं,
अगणित बार पढ़ा मैंने.
शायद हर पुस्तक को,
उनके सारे अर्थ खंगाले.
गाँव, सूबे, राज्य-देश,
समस्त धरा, लोक-परलोक.
इनकी तो सीमा ही नहीं,
तो अजेय कैसे कोई?

जिस उद्यान बैठ मैंने,
स्वयं से ही तर्क किये.
वहाँ की दूब मरी नहीं,
मेरे या विचारों के बोझ तले.
वायु को सर झुका रास्ता दिया,
वर्षा को संजोया, भीषण,
जेठ को शीश नवाया.
भूमि को बाँध रखा.
फिर भी धरा न मानी,
तो जा घर बसाया,
उसके साथ परदेश में.

अब ना शीत है,
ना वर्षा, ना बाढ़.
ना मेरी पुस्तकें-ग्रन्थ,
ना ही मेरे तर्क-व्यवहार.
मैं हूँ, है मेरे सामने,
विनीत अजेय दूब.......

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