वस्तुतः रोज ही,
होते हैं उत्पन्न.
मेरे ही ह्रदय में,
आत्मा से मेरी.
अधिकतर तो टकरा कर,
तोड़ देते हैं दम.
ह्रदय की मजबूत,
स्पन्दनहीन दीवारों से.
पर कुछ रिस जाते हैं,
धमनियों-शिराओं से.
और कुछ जाते हैं भाग,
श्वास नलिकाओं से.
कुछ निकलते हैं,
फट कर पोरों से.
भरे भारी सी टीस,
बन कर करुण गीत.
साथ निकल जाते हैं,
कुछ साँस से मेरी.
बन के क्षितिज,
धरा का प्रेम-विचार.
बन के पारे कुछ,
आँखों से बह जाते हैं.
कुछ याद की मानिंद,
कोरों में ही रह जाते हैं.
कुछ रहते हैं सदा,
कानों में गुंजित मेरे.
मैत्री की डोर बन,
पिता के संस्कार.
पर कुछ बहते हैं,
हर क्षण शिराओं में.
अम्मा की आशीष के,
ये शब्द बहुत बलवान हैं.
3 टिप्पणियाँ:
phir to aapki har kavitaa aapki shiraon mein behti hogi...kyunki har kisi ke shabd aur bhaav dono hi bahut balwaan hote hain,....
Vartika ji..
Bahut din baad....
Achchha laga aapka aana
Bahut bahut shukriyaa...itni balwan bhi nahi meri kavitaayein :)
hmmm.......akhiri lines to meri shiraaon mein utar gayin...:)
aur kuch kehne ki condition mein nahin............
Post a Comment