एक ही मिटटी,
एक ही मूल्य,
एक ही शिल्प,
एक सा चीर,
एक ही ताप,
एक ही छाया,
एक आद्रता,
एक ही घुमाव,
एक ही नाप,
फिर भी यहाँ,
शीतलता नहीं.
माँ की रामनवमी,
के कलश और,
मेरी गर्मी के घड़े में,
इतना फर्क लाज़मी है.
अपने कहे के लिए अक्खडपन रखना मेरा नियत व्यवहार है, किन्तु आलोचना के वृक्ष प्रिय हैं मुझे।
ऐसा नहीं था कि प्रेम दीक्षायें नहीं लिखी जा सकती थीं, ऐसा भी नहीं था कि भूखे पेटों की दहाड़ नहीं लिख सकता था मैं, पर मुझे दूब की लहकन अधिक प्रिय है।
वर्ण-शब्द-व्याकरण नहीं है, सुर संगीत का वरण नहीं है। माँ की साँसों का लेखा है, जो व्याध को देता धोखा है।
सोंधे से फूल, गुलगुली सी माटी, गंगा का तीर, त्रिकोणमिति, पुरानी कुछ गेंदें, इतना ही हूँ मैं। साहित्य किसे कहते हैं? मुझे सचमुच नहीं पता।
स्वयं के वातायनों से बुर्ज-कंगूरे नहीं दिखते। हे नींव तुम पर अहर्निश प्रणत हूँ।
3 टिप्पणियाँ:
bilkul lajmi hai ye fark......
तुम्हारी लेखनी में हमेशा प्रखरता रहे....बहुत सुन्दर भाव....
sunder bhav..........
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