मैं वेदों से संलग्न नहीं,
ना किसी ऋचा का ज्ञाता हूँ.
ना मार्ग में मंदिर आते हैं,
ना मैं मस्जिद तक जाता हूँ.
कोई व्यर्थ समीक्षा क्यूँ कर दूँ,
जब विषय से ही घबराता हूँ.
साहित्य का मैं व्यवहार नहीं,
यहाँ भूल भटक कर आता हूँ.
छोटी पाती लिखता हूँ जब,
और धूप में उसे सुखाता हूँ.
क्षणिका मणिका कह देते हो,
जब अम्मा को भिजवाता हूँ.
जब पवन तेज हो उठती है,
खींच मैं लेता हूँ परदे.
परदों की पवन से अनबन है,
ना कि मैं गीत सुनाता हूँ.
धुली शरद की रातों में,
मैं रोज देखता हूँ अम्बर.
है धरा से लेकिन प्रेम मुझे,
नेत्रों में ही टिमटिमाता हूँ.
बहुत बड़ा है तपस्वी जिसे,
स्नेह से कहता हूँ मैं पिता.
बस शीश नवाता हूँ उसको,
जब पग कोई भी बढाता हूँ.
कोई शब्द चितेरा नहीं हूँ मैं,
ना गीत कोई लिख पाता हूँ.
तुम व्यर्थ प्रशंसा करते हो,
ना रच हूँ ना रच पाता हूँ.
9 टिप्पणियाँ:
Avinash Chandra ji kya haal hai....
kamal ka likhte hai aap
ek se badh kar ek........
avinash bahut aage jaoge aap..........lekhan me.......
jitne sunder vichar utanee hee sunder abhivyktee........
aur sunder shavd chayan.........
Aapka bahut bahut shukriya..
Is aashish ka bhi..
Mujhe tum kah kar hi sambodhit karein, harsh hoga.
अविनाश,
तुम्हारा लिखा पढ़ मन को बहुत सुकून मिलता है....पवित्र विचार और भावों से भरी होती है तुम्हारी हर रचना....शुभकामनायें
bas itna hi kahunga dost
wah ustaad waah.....
bas itna hi kahunga dost
wah ustaad waah.....
avinash bhaiya,
vicharo ki bahut hi khoobsurat avivyakti hai,
hamesha ki tarah!!
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