ठूँठ...


कितने दिनों से दोस्त,
लगे नहीं तुम पर,
हरित नव किसलय?

कब देखा था,
अंतिम वासंतिक,
बसंत तुमने?

मेरी सुधि तो,
नहीं ढूंढ़ पाती,
ऐसा दिन कोई.

सच में कभी,
तुम थे वाकई,
समृद्ध हरे-भरे?

मोहित थीं कभी,
सुडौल शाखों पर,
क्या लता-वल्लरियाँ?

सावन-आषाढ़ और,
ओस की बूँदें,
लेती थीं आलिंगन.

तपन और वायु,
रहतीं थी मंद,
तेज से तुम्हारे.

मृदा पर बोझ,
ढीठ अभिशप्त,
अपशगुनी कहीं के.

बड़े दिनों तक,
सोचता रहा था,
कहूँ किसी दिन तुम्हे.

पर अब सोचता हूँ,
दोस्ती कर लूँ,
बतियाना तो हो.

चाहे मना कर देना,
पर कहना मत,
"चल हट....ठूँठ.."

1 टिप्पणियाँ:

रश्मि प्रभा... said...

वाह........बहुत बढ़िया