व्यापार...



भाई!
खरीदोगे जरा,
चकाचौंध मुझसे.
एकदम जमाई,
सफ़ेद धूप दूँगा.

देखो!
तुम्हारी शाम,
आने वाली है.
जल्दी बताओ.
वरना मैं देखूँ,
और कोई ग्राहक.

क्या?
पैसे नहीं हैं,
तुम्हारे पास.
अरे भाई मुझे,
चाहिए भी नहीं.

कीमत?
बस एक टुकडा,
रात का लूँगा.
उजाले में था.
चाह कर भी मैं,
कभी रोया नहीं.
ठीक से देखो,
कितने युगों से मित्र,
मैं ढंग से सोया नहीं.

2 टिप्पणियाँ:

रश्मि प्रभा... said...

मान गए बेटा......क्या खरीद फरोख्त किया है !

Taru said...

:):)

......bahut abdhiyaan kavita Avinash.......ekdum alag tumhare usual style se..............:)