सिर्फ रक्तयुक्त को ही,
दर्द नहीं होता सदा.
कभी-कभी कलम भी,
बासाख्ता रोती है.
रुंधे गले में सभी,
शब्द अटक जाते हैं.
किसी भी ताप से,
पिघलती नहीं स्याही.
उसका तो रोना भी,
चाव से पढ़ लेंगे सभी.
वाहवाही अवसान की,
अदभुत है, अजीब है.
अपने कहे के लिए अक्खडपन रखना मेरा नियत व्यवहार है, किन्तु आलोचना के वृक्ष प्रिय हैं मुझे।
ऐसा नहीं था कि प्रेम दीक्षायें नहीं लिखी जा सकती थीं, ऐसा भी नहीं था कि भूखे पेटों की दहाड़ नहीं लिख सकता था मैं, पर मुझे दूब की लहकन अधिक प्रिय है।
वर्ण-शब्द-व्याकरण नहीं है, सुर संगीत का वरण नहीं है। माँ की साँसों का लेखा है, जो व्याध को देता धोखा है।
सोंधे से फूल, गुलगुली सी माटी, गंगा का तीर, त्रिकोणमिति, पुरानी कुछ गेंदें, इतना ही हूँ मैं। साहित्य किसे कहते हैं? मुझे सचमुच नहीं पता।
स्वयं के वातायनों से बुर्ज-कंगूरे नहीं दिखते। हे नींव तुम पर अहर्निश प्रणत हूँ।
2 टिप्पणियाँ:
waaah ! yahan to dukh ki bhi waahwaahi ho gayi..bahut sunder badi kushalta se kalam ki vyatha ko shabd de diye..aur samapan to adbhut hai...........:):)
Badhayi Avinash is nazm ke liye...:)
Di
aap itna peechhe tak aayin ise samay dene... :)
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