पानी...
मदिरा मृत्यु,
स्वप्न शांतनु.
और रक्त,
अभिमानी है.
शीतल जिसमे,
जीवन बसता.
सहज सरल,
बस पानी है.
चाशनी....
सुना है मुझसे दूर,
बहुत खुश हो.
जलेबी-रसगुल्ले खा,
चूम लेना ये कागज़.
की मेरी बेरंग नज्में,
भी हो जाएँ मीठी सी.
कहवा.....
आओ बैठो,
कुछ बातें करें.
खोलें कुछ गिरह,
बीती खटास घोलें.
लो याराने की,
आंच पर खौलता,
कहवा मुबारक हो.
चाय...
अब तुम जो नहीं,
तो चाय में चीनी,
कितनी ही डालूं.
मेरी नमकीन शामों का,
सिलसिला खत्म नहीं होता.
गंगाजल...
मानसरोवर में,
ना काशी तीर.
पुष्कर में ना,
सागर क्षीर.
निश्छल नैनों,
में ही केवल.
बसता है,
गंगा का नीर.
दूध....
मांस, अस्थियाँ, मज्जा.
केश, शरीर और सज्जा.
श्वास, नयन और कंठ.
इस सृजन के बाद,
जीवन भी दिया तुमने,
अम्मा देकर दूध.
प्रीत का शरबत.....
माना की नहीं दे पाओ,
तुम सोने की प्याली.
चांदी, पीतल शायद,
लोहे तक की नहीं.
प्रीत की शरबत,
का आनंद,
सुना है सिर्फ,
कुल्हड़ों में मिलता है.
निबोली....
उस वक़्त ज़रा,
कडवापन था.
आज जीवन का,
चिकना चेहरा देख.
घुल जाती है,
ठंडी मिठास.
पिता जी की,
सीख की निबोली.
अब भी बाखूब,
असर करती है.
तरल....
अपाच्य या सुपाच्य,
हर पेय होता है तरल.
विवेक और स्थिति,
करते हैं तय,
कौन सुधा-कौन गरल.
4 टिप्पणियाँ:
nice........
taraltaa ko har roop mein dhaal kar le laaaye aapto... aur sabhi behad taraashe hue se lage...
Bahut bahut shukriya aap dono hi ka
i have read it before.........fir se aaj padhke utna hi achha laga Avinash :)
..................:)
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