आना तुम्हारा..
तुम आते हो,
मिलते हो.
तो खनखनाती है,
ये खामोशी भी.
वरना तो यहाँ,
अंजुमन के ठहाके,
भी चुपचाप है.
शुक्रिया अब्बा...
शुक्रिया अब्बा,
मुझे नाजों में रखा.
पर उससे भी,
ज्यादा शुक्रिया.
की मुझे चलने,
दिया दुनिया में.
टिश्यु पेपर में,
नहीं लपेटा.
जो आज कटहल,
टमाटर मोल पाता हूँ.
स्वाभाविक प्रेम...
सुन्दर थी,
सुघड़-सुडौल.
चपल-चंचल.
चमकदार,
मोहिनी भी,
स्वाभाविक था,
प्रेम होना.
क्रिकेट की,
लाल गेंद से.
फोटोसिन्थेसिस...
किसने कहा,
आवश्यक है,
क्लोरोफिल,
फोटोसिन्थेसिस हेतु.
तनिक माँ के,
चरण छूना.
युगों भूख,
नहीं सताएगी.
अनुज....
अनुज!
सच कहना.
तुम ही तो,
नहीं थे भरत,
त्रेता में?
थे भी तो,
वत्स!
मैं राम,
नहीं था.
फिर भी,
इतना प्रेम?
कैसे अनुज?
प्यास...
माँ जब नवमी उतरे,
तो कलश भर देना.
कोक नहीं पीता अम्मा,
फ्रिज भी नहीं छूता.
एक गिलास रसना बना,
गुलाब में डाल देना.
बड़े दिनों की प्यास है,
अम्मा बुझ जायेगी.
5 टिप्पणियाँ:
JAWAAB NAHI AAPKA AVINASH JI.
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
हर क्षणिका बहुत गहरी बात कहती हुई ....सुन्दर अभिव्यक्ति....शुभकामनायें
अच्छी क्षणिकायें हैं बड़ी कवितायें भी लिखें ।
शहीद भगत सिंह पर एक रपट यहाँ भी देखें
http://sharadakokas.blogspot.com
Sharad ji,
Bahut bahut shukriya...badi kavitaaon ka bhi prayatn karta rahta hun
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