छुअन....

यूँ मसरूफियत बहुत होगी,
पर जब वक़्त मिले कभी.
तो अपनी दराजें खोलना,
अगरचे खुलें बाकायदा.

तहा कर रखे करीने से,
अखबारों की सिलवटों में.
हटाओ तो मिलेंगे तुम्हे,
कुछ गुलाब सूखे शायद.

लौटाने को नहीं कहता,
ना ही उन्हें फेंक देना.
छू लेना तर्जनी से,
मैं तुम्हे छू आऊँगा.

2 टिप्पणियाँ:

संजय भास्‍कर said...

तहा कर रखे करीने से,
अखबारों की सिलवटों में.
हटाओ तो मिलेंगे तुम्हे,
कुछ गुलाब सूखे शायद.



इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

शरद कोकास said...

पुराने बिम्ब के साथ नई प्रेम कविता
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http://kavikokas.blogspot.com - शरद कोकास