जंजीर....

तुम आये,
बनाते रहे.
जोड़ते रहे,
कड़ियाँ प्रीत की.

घुला, घुमा कर.
एक में,
एक सी ही.
फिर कहाँ गए?

अब ना तुम हो,
ना प्रीत की डोर.
उभर आई हैं गांठें.
और ये खुलती नहीं.
सिकुड़ती जाती हैं,
तुम्हारी यादों की जंजीरें.

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