अबकी पतझड़ शीत,
मैं भी झड़ा.
पूछते थे ना तुम,
राज मेरी दमक का.
प्रसन्नता के अगणित,
किसलयदल का.
इस बार गिरे मीत,
मैं भी झड़ा.
स्वेद मेरा चुनते,
थे पहले अबाबील.
कहा नमक और,
थूक धरा.
चन्दन और लोबान,
से नाम.
गिरे मेरे धेले,
के दाम.
सब चिड़ियों ने,
छोड़ा नीड़.
स्नेह हो ,
चकनाचूर गिरा.
आँखों से कुछ,
बहा लहू सा.
कटा ह्रदय ले,
रहा खडा.
अबकी पतझड़ शीत,
मैं भी झड़ा.
1 टिप्पणियाँ:
अविनाश,
क्या बात है???? बहुत वेदना दिख रही है इस रचना में....
पतझर के बाद बसंत आता है....शुभकामनायें
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