तुम्हारी जाति?
रहने दो.
धर्म?
नहीं नहीं.
खानदान-कुल?
ऊँहू.
आय?
नागरिकता?
उम्र, लिंग?
नहीं नहीं मित्र.
आँख में पानी,
शिराओं में लहू,
रखते हो ना?
पर्याप्त है इतना,
मुझसे मित्रता को.
अपने कहे के लिए अक्खडपन रखना मेरा नियत व्यवहार है, किन्तु आलोचना के वृक्ष प्रिय हैं मुझे।
ऐसा नहीं था कि प्रेम दीक्षायें नहीं लिखी जा सकती थीं, ऐसा भी नहीं था कि भूखे पेटों की दहाड़ नहीं लिख सकता था मैं, पर मुझे दूब की लहकन अधिक प्रिय है।
वर्ण-शब्द-व्याकरण नहीं है, सुर संगीत का वरण नहीं है। माँ की साँसों का लेखा है, जो व्याध को देता धोखा है।
सोंधे से फूल, गुलगुली सी माटी, गंगा का तीर, त्रिकोणमिति, पुरानी कुछ गेंदें, इतना ही हूँ मैं। साहित्य किसे कहते हैं? मुझे सचमुच नहीं पता।
स्वयं के वातायनों से बुर्ज-कंगूरे नहीं दिखते। हे नींव तुम पर अहर्निश प्रणत हूँ।
3 टिप्पणियाँ:
avinash
bahut gehan abhivyakti...sochon ko shabdon mein bandhne ke jadugar ho tum
God bless u
Mudita
:) sach mein bhaavon ko jis tarah aap shabdon mein pirote ahin , vo uss bhaav ko ek nayaa aur anupam rang de deta hai...
Bahut bahut shukriya aap donon ka
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