कब पता था,
प्रीत नई नई है?
तुम तो उसे,
सदियों जन्मों का,
नेह कहते थे.
मैंने तुम्हारे मन को,
प्यार से लबरेज समझा.
मखमली झाग को,
सूख के बैठने में,
कितना वक़्त लगना था.
आना तुम्हारा..
तुम आते हो,
मिलते हो.
तो खनखनाती है,
ये खामोशी भी.
वरना तो यहाँ,
अंजुमन के ठहाके,
भी चुपचाप है.
शुक्रिया अब्बा...
शुक्रिया अब्बा,
मुझे नाजों में रखा.
पर उससे भी,
ज्यादा शुक्रिया.
की मुझे चलने,
दिया दुनिया में.
टिश्यु पेपर में,
नहीं लपेटा.
जो आज कटहल,
टमाटर मोल पाता हूँ.
स्वाभाविक प्रेम...
सुन्दर थी,
सुघड़-सुडौल.
चपल-चंचल.
चमकदार,
मोहिनी भी,
स्वाभाविक था,
प्रेम होना.
क्रिकेट की,
लाल गेंद से.
फोटोसिन्थेसिस...
किसने कहा,
आवश्यक है,
क्लोरोफिल,
फोटोसिन्थेसिस हेतु.
तनिक माँ के,
चरण छूना.
युगों भूख,
नहीं सताएगी.
अनुज....
अनुज!
सच कहना.
तुम ही तो,
नहीं थे भरत,
त्रेता में?
थे भी तो,
वत्स!
मैं राम,
नहीं था.
फिर भी,
इतना प्रेम?
कैसे अनुज?
प्यास...
माँ जब नवमी उतरे,
तो कलश भर देना.
कोक नहीं पीता अम्मा,
फ्रिज भी नहीं छूता.
एक गिलास रसना बना,
गुलाब में डाल देना.
बड़े दिनों की प्यास है,
अम्मा बुझ जायेगी.
तुम आते हो,
मिलते हो.
तो खनखनाती है,
ये खामोशी भी.
वरना तो यहाँ,
अंजुमन के ठहाके,
भी चुपचाप है.
शुक्रिया अब्बा...
शुक्रिया अब्बा,
मुझे नाजों में रखा.
पर उससे भी,
ज्यादा शुक्रिया.
की मुझे चलने,
दिया दुनिया में.
टिश्यु पेपर में,
नहीं लपेटा.
जो आज कटहल,
टमाटर मोल पाता हूँ.
स्वाभाविक प्रेम...
सुन्दर थी,
सुघड़-सुडौल.
चपल-चंचल.
चमकदार,
मोहिनी भी,
स्वाभाविक था,
प्रेम होना.
क्रिकेट की,
लाल गेंद से.
फोटोसिन्थेसिस...
किसने कहा,
आवश्यक है,
क्लोरोफिल,
फोटोसिन्थेसिस हेतु.
तनिक माँ के,
चरण छूना.
युगों भूख,
नहीं सताएगी.
अनुज....
अनुज!
सच कहना.
तुम ही तो,
नहीं थे भरत,
त्रेता में?
थे भी तो,
वत्स!
मैं राम,
नहीं था.
फिर भी,
इतना प्रेम?
कैसे अनुज?
प्यास...
माँ जब नवमी उतरे,
तो कलश भर देना.
कोक नहीं पीता अम्मा,
फ्रिज भी नहीं छूता.
एक गिलास रसना बना,
गुलाब में डाल देना.
बड़े दिनों की प्यास है,
अम्मा बुझ जायेगी.
कल वर्षा हुई,
मैं भी घुल गया.
भीगती ईंटों में,
धीरे धीरे घुसा.
गारे की जगह,
ईंटे जुडी थीं,
कटहल की सब्जी,
चावल के माड़,
गुलाब के पत्तों,
लूडो की गोटियों से.
वहीँ मिली मेरी,
खांसी की दवाई.
उसे पीते ही,
बड़ा हल्का हूँ.
कहो तो आज,
गा सकता हूँ.
मैं भी घुल गया.
भीगती ईंटों में,
धीरे धीरे घुसा.
गारे की जगह,
ईंटे जुडी थीं,
कटहल की सब्जी,
चावल के माड़,
गुलाब के पत्तों,
लूडो की गोटियों से.
वहीँ मिली मेरी,
खांसी की दवाई.
उसे पीते ही,
बड़ा हल्का हूँ.
कहो तो आज,
गा सकता हूँ.
क्यूँ रह जाते हो चुप?
क्यूँ नहीं पलटते?
क्यूँ नहीं तोड़ देते मुँह?
क्यूँ नहीं जताते हक़?
क्यूँ आक्रोश नहीं दिखाते?
क्यूँ चुप चाप करते,
जाते हो कर्म मान?
क्यूँ सदैव मीठे,
ही रहते हो.
पर शायद दीवारें,
बचाती हैं, छुपाती हैं,
सजाती हैं.
सभी हाल मुस्काती हैं.
लोगों को अपनाती हैं.
दीवारें कहाँ बोलती हैं,
चुप ही पाई जाती हैं.
क्यूँ नहीं पलटते?
क्यूँ नहीं तोड़ देते मुँह?
क्यूँ नहीं जताते हक़?
क्यूँ आक्रोश नहीं दिखाते?
क्यूँ चुप चाप करते,
जाते हो कर्म मान?
क्यूँ सदैव मीठे,
ही रहते हो.
पर शायद दीवारें,
बचाती हैं, छुपाती हैं,
सजाती हैं.
सभी हाल मुस्काती हैं.
लोगों को अपनाती हैं.
दीवारें कहाँ बोलती हैं,
चुप ही पाई जाती हैं.
बहुत दिन हुए ना,
लिखे हुए कुछ भी?
तुम पर अथवा,
तुम्हारे बारे में.
किन्तु प्रिय,
तुमसे वैराग ले.
या दोष दे तुम्हे,
कैसे लिखता?
कैसे बुनता शब्द,
कर तुम्हे शापित?
कैसे कर पाता,
अस्थियाँ गीत की,
मज्जा विहीन?
तुम्हारा लावण्य,
भी तो नहीं,
बखान सकता था.
प्रिय!
प्रीतम कैसे लिखता?
क्यूँ लिखता तुम्हे?
जब स्नेह के,
अंतिम तिनके,
को भी तोड़ा,
तुमने निर्मम हो.
पर फिर क्या,
लिखता तुम्हे?
कोई और नाम,
जानता भी तो नहीं.
अप्रिय हो तुम.
मेरा ह्रदय यह,
मानता भी तो नहीं.
सच में!
बहुत दिन हुए ना,
लिखे हुए कुछ भी?
बहुत चाहा करूँ,
निंदा तुम्हारी.
किन्तु दवात तो,
अनुराग ले बैठा है.
काश कि तुम,
ना होते.
या ना होता,
ये कागज़ ही.
मैं लिखता काठ पर,
आँसू से भिगाता.
बोरसी में जलाता.
चटकते तुम्हारे नाम,
बनते स्फुलिंग.
मैं छूता जल जाता.
जले हाथों से लिखता,
तो शायद लिख पाता.
लिखे हुए कुछ भी?
तुम पर अथवा,
तुम्हारे बारे में.
किन्तु प्रिय,
तुमसे वैराग ले.
या दोष दे तुम्हे,
कैसे लिखता?
कैसे बुनता शब्द,
कर तुम्हे शापित?
कैसे कर पाता,
अस्थियाँ गीत की,
मज्जा विहीन?
तुम्हारा लावण्य,
भी तो नहीं,
बखान सकता था.
प्रिय!
प्रीतम कैसे लिखता?
क्यूँ लिखता तुम्हे?
जब स्नेह के,
अंतिम तिनके,
को भी तोड़ा,
तुमने निर्मम हो.
पर फिर क्या,
लिखता तुम्हे?
कोई और नाम,
जानता भी तो नहीं.
अप्रिय हो तुम.
मेरा ह्रदय यह,
मानता भी तो नहीं.
सच में!
बहुत दिन हुए ना,
लिखे हुए कुछ भी?
बहुत चाहा करूँ,
निंदा तुम्हारी.
किन्तु दवात तो,
अनुराग ले बैठा है.
काश कि तुम,
ना होते.
या ना होता,
ये कागज़ ही.
मैं लिखता काठ पर,
आँसू से भिगाता.
बोरसी में जलाता.
चटकते तुम्हारे नाम,
बनते स्फुलिंग.
मैं छूता जल जाता.
जले हाथों से लिखता,
तो शायद लिख पाता.
मैं बैठा दायें,
तुम बायें हाशिये पर.
कभी तो ख़त्म होंगी,
रिवाजों की आयतें.
मुसलसल हम भी,
फातिहे पढ़ लेंगे.
तुम बायें हाशिये पर.
कभी तो ख़त्म होंगी,
रिवाजों की आयतें.
मुसलसल हम भी,
फातिहे पढ़ लेंगे.
तुम्हारी जाति?
रहने दो.
धर्म?
नहीं नहीं.
खानदान-कुल?
ऊँहू.
आय?
नागरिकता?
उम्र, लिंग?
नहीं नहीं मित्र.
आँख में पानी,
शिराओं में लहू,
रखते हो ना?
पर्याप्त है इतना,
मुझसे मित्रता को.
रहने दो.
धर्म?
नहीं नहीं.
खानदान-कुल?
ऊँहू.
आय?
नागरिकता?
उम्र, लिंग?
नहीं नहीं मित्र.
आँख में पानी,
शिराओं में लहू,
रखते हो ना?
पर्याप्त है इतना,
मुझसे मित्रता को.
तुम आये,
बनाते रहे.
जोड़ते रहे,
कड़ियाँ प्रीत की.
घुला, घुमा कर.
एक में,
एक सी ही.
फिर कहाँ गए?
अब ना तुम हो,
ना प्रीत की डोर.
उभर आई हैं गांठें.
और ये खुलती नहीं.
सिकुड़ती जाती हैं,
तुम्हारी यादों की जंजीरें.
बनाते रहे.
जोड़ते रहे,
कड़ियाँ प्रीत की.
घुला, घुमा कर.
एक में,
एक सी ही.
फिर कहाँ गए?
अब ना तुम हो,
ना प्रीत की डोर.
उभर आई हैं गांठें.
और ये खुलती नहीं.
सिकुड़ती जाती हैं,
तुम्हारी यादों की जंजीरें.
यूँ मसरूफियत बहुत होगी,
पर जब वक़्त मिले कभी.
तो अपनी दराजें खोलना,
अगरचे खुलें बाकायदा.
तहा कर रखे करीने से,
अखबारों की सिलवटों में.
हटाओ तो मिलेंगे तुम्हे,
कुछ गुलाब सूखे शायद.
लौटाने को नहीं कहता,
ना ही उन्हें फेंक देना.
छू लेना तर्जनी से,
मैं तुम्हे छू आऊँगा.
पर जब वक़्त मिले कभी.
तो अपनी दराजें खोलना,
अगरचे खुलें बाकायदा.
तहा कर रखे करीने से,
अखबारों की सिलवटों में.
हटाओ तो मिलेंगे तुम्हे,
कुछ गुलाब सूखे शायद.
लौटाने को नहीं कहता,
ना ही उन्हें फेंक देना.
छू लेना तर्जनी से,
मैं तुम्हे छू आऊँगा.
प्रीत पर्ण पर,
पाती लिख दो.
कर्ण हमारे,
सुन लेंगे.
फूल कपास के,
जो पाएँगे.
स्नेह की चादर,
बुन लेंगे.
मैना को,
मनुहार सुना दो.
धप जड़ दो,
एक शीशम को.
प्रेम जहां भी,
छितराओगे.
हम पलकों से,
चुन लेंगे.
गीत तनिक,
तुलसी को सुनाओ.
ज़रा सजाओ,
कलसी को.
खींच के धड़कन,
को वीणा पर.
साज तुम्हारे,
गुन लेंगे.
तुमको जो भी,
रस भा जाए.
अपना लेना,
उसको ही.
हमको वो ही,
रस प्यारा है.
हम भी वो ही,
धुन लेंगे.
पाती लिख दो.
कर्ण हमारे,
सुन लेंगे.
फूल कपास के,
जो पाएँगे.
स्नेह की चादर,
बुन लेंगे.
मैना को,
मनुहार सुना दो.
धप जड़ दो,
एक शीशम को.
प्रेम जहां भी,
छितराओगे.
हम पलकों से,
चुन लेंगे.
गीत तनिक,
तुलसी को सुनाओ.
ज़रा सजाओ,
कलसी को.
खींच के धड़कन,
को वीणा पर.
साज तुम्हारे,
गुन लेंगे.
तुमको जो भी,
रस भा जाए.
अपना लेना,
उसको ही.
हमको वो ही,
रस प्यारा है.
हम भी वो ही,
धुन लेंगे.
अबकी पतझड़ शीत,
मैं भी झड़ा.
पूछते थे ना तुम,
राज मेरी दमक का.
प्रसन्नता के अगणित,
किसलयदल का.
इस बार गिरे मीत,
मैं भी झड़ा.
स्वेद मेरा चुनते,
थे पहले अबाबील.
कहा नमक और,
थूक धरा.
चन्दन और लोबान,
से नाम.
गिरे मेरे धेले,
के दाम.
सब चिड़ियों ने,
छोड़ा नीड़.
स्नेह हो ,
चकनाचूर गिरा.
आँखों से कुछ,
बहा लहू सा.
कटा ह्रदय ले,
रहा खडा.
अबकी पतझड़ शीत,
मैं भी झड़ा.
मैं भी झड़ा.
पूछते थे ना तुम,
राज मेरी दमक का.
प्रसन्नता के अगणित,
किसलयदल का.
इस बार गिरे मीत,
मैं भी झड़ा.
स्वेद मेरा चुनते,
थे पहले अबाबील.
कहा नमक और,
थूक धरा.
चन्दन और लोबान,
से नाम.
गिरे मेरे धेले,
के दाम.
सब चिड़ियों ने,
छोड़ा नीड़.
स्नेह हो ,
चकनाचूर गिरा.
आँखों से कुछ,
बहा लहू सा.
कटा ह्रदय ले,
रहा खडा.
अबकी पतझड़ शीत,
मैं भी झड़ा.
माँ....
तुम्हारा छूना,
सहला देना.
रोटियाँ फुलाना,
बिना चिमटे के.
अजब सत्य है,
स्वप्न के जैसा.
अब्बा...
आँख खुलते ही,
छः गेंदों का डिब्बा.
अब्बू सपने में भी,
गेंद खोने नहीं देते.
शब्द...
नाराज़ शब्दों ने,
संधि की है स्याही से.
रात कलम ने,
स्वप्न थे देखे.
तुम....
ना आओ बेशक,
फजीहत ना करो.
भिजवा दो तस्वीर की,
सपने ना धुंधलाएँ.
फेर...
युगों से नहीं ,
देखे स्वप्न मैंने.
या जागा नहीं,
इतने ही वक़्त से.
पलक...
एकटक देखा तुम्हे,
पलकें नहीं झपकाईं.
सच हो तो ये,
दीद ना छूटे.
नहीं तो मीठा,
ख्वाब ना टूटे.
रण...
शीतल वृक्ष,
मंद पवन.
श्वेत ओस और,
नील गगन.
चित्त शांत और,
निर्मल मन.
आँख खुली तो,
रोज का रण.
तुम्हारा छूना,
सहला देना.
रोटियाँ फुलाना,
बिना चिमटे के.
अजब सत्य है,
स्वप्न के जैसा.
अब्बा...
आँख खुलते ही,
छः गेंदों का डिब्बा.
अब्बू सपने में भी,
गेंद खोने नहीं देते.
शब्द...
नाराज़ शब्दों ने,
संधि की है स्याही से.
रात कलम ने,
स्वप्न थे देखे.
तुम....
ना आओ बेशक,
फजीहत ना करो.
भिजवा दो तस्वीर की,
सपने ना धुंधलाएँ.
फेर...
युगों से नहीं ,
देखे स्वप्न मैंने.
या जागा नहीं,
इतने ही वक़्त से.
पलक...
एकटक देखा तुम्हे,
पलकें नहीं झपकाईं.
सच हो तो ये,
दीद ना छूटे.
नहीं तो मीठा,
ख्वाब ना टूटे.
रण...
शीतल वृक्ष,
मंद पवन.
श्वेत ओस और,
नील गगन.
चित्त शांत और,
निर्मल मन.
आँख खुली तो,
रोज का रण.