दी...


जब सुबह अधूरी सी होवे,
और दी तुम याद बहुत आओ.
थोड़ा काजल चटका देना,
मैं बादल उनसे बना लूँगा.

जब धूप चटख पर सीली हो,
और छत पर जब दी तुम जाओ.
सूरज को आँख दिखा देना,
मैं अपनी धूप बना लूँगा.

जब शाम में चिर सन्नाटा हो,
और मैना से दी बतियाओ.
उसे प्रेम घुमक्का जड़ देना,
मैं शंख ध्वनि सी पा लूँगा.

जब रात अधिक ही बासी हो,
और पानी पीने दी जाओ.
बस हल्का सा मुस्का देना,
मैं नभ में तारे पा लूँगा.

जब शीत बहुत धरती पर हो,
और धूप सेकने दी आओ.
हथेलियाँ अपनी रगड़ देना,
मैं उनसे अलाव जला लूँगा.

जब आतप घोर करारी हो,
और कपडे सुखाने दी जाओ.
कुछ छींटे धरती पर देना,
मैं अपनी ठंडक पा लूँगा.

जब हफ्ते भर अम्बर छलके,
और दी तुम खिड़की पर जाओ.
एक हलकी फूंक लगा देना,
मैं राहें कई सुखा लूँगा.

जब कभी जरुरत मेरी हो,
और याद मुझे दी रख पाओ.
हौले से नाम मेरा लेना,
मैं सरपट दौड़ लगा दूँगा.

4 टिप्पणियाँ:

रोहित said...

behad khoobsurat kavita..........
liked it vry much bhaiya!!!

Avinash Chandra said...

Shukriya Rohit....tum aaye harsh hua

Taru said...

dhanya hai tumhari Didi aur dhanya hai tumhare yeh snehmayi shabd unke liye..poori kavita mein sneh chhalka chhalka ja raha hai...khushi se dil bhar aaya Avinash....khush raho.

स्वप्निल तिवारी said...

avi....main taru ki baatenm dohrata hun.... :)