फर्क (लघु कविता)....

एक ही मिटटी,
एक ही मूल्य,
एक ही शिल्प,
एक सा चीर,
एक ही ताप,
एक ही छाया,
एक आद्रता,
एक ही घुमाव,
एक ही नाप,
फिर भी यहाँ,
शीतलता नहीं.
माँ की रामनवमी,
के कलश और,
मेरी गर्मी के घड़े में,
इतना फर्क लाज़मी है.

सिर्फ रक्तयुक्त को ही,
दर्द नहीं होता सदा.
कभी-कभी कलम भी,
बासाख्ता रोती है.

रुंधे गले में सभी,
शब्द अटक जाते हैं.
किसी भी ताप से,
पिघलती नहीं स्याही.

उसका तो रोना भी,
चाव से पढ़ लेंगे सभी.
वाहवाही अवसान की,
अदभुत है, अजीब है.

ठूँठ...


कितने दिनों से दोस्त,
लगे नहीं तुम पर,
हरित नव किसलय?

कब देखा था,
अंतिम वासंतिक,
बसंत तुमने?

मेरी सुधि तो,
नहीं ढूंढ़ पाती,
ऐसा दिन कोई.

सच में कभी,
तुम थे वाकई,
समृद्ध हरे-भरे?

मोहित थीं कभी,
सुडौल शाखों पर,
क्या लता-वल्लरियाँ?

सावन-आषाढ़ और,
ओस की बूँदें,
लेती थीं आलिंगन.

तपन और वायु,
रहतीं थी मंद,
तेज से तुम्हारे.

मृदा पर बोझ,
ढीठ अभिशप्त,
अपशगुनी कहीं के.

बड़े दिनों तक,
सोचता रहा था,
कहूँ किसी दिन तुम्हे.

पर अब सोचता हूँ,
दोस्ती कर लूँ,
बतियाना तो हो.

चाहे मना कर देना,
पर कहना मत,
"चल हट....ठूँठ.."

व्यापार...



भाई!
खरीदोगे जरा,
चकाचौंध मुझसे.
एकदम जमाई,
सफ़ेद धूप दूँगा.

देखो!
तुम्हारी शाम,
आने वाली है.
जल्दी बताओ.
वरना मैं देखूँ,
और कोई ग्राहक.

क्या?
पैसे नहीं हैं,
तुम्हारे पास.
अरे भाई मुझे,
चाहिए भी नहीं.

कीमत?
बस एक टुकडा,
रात का लूँगा.
उजाले में था.
चाह कर भी मैं,
कभी रोया नहीं.
ठीक से देखो,
कितने युगों से मित्र,
मैं ढंग से सोया नहीं.




रोज चुभते हैं,
जलते गलते.
ना जाने कितने ही,
काँच के टुकड़े.

लाल रंग मुझे,
छोड़ देता है.
आँखें छलका देती हैं,
थोड़ा सा नमक.

अब तो आत्मा,
में भी दर्द नहीं.
जमे हैं केवल,
काँच के टुकड़े.

नज़रें चूकने से पहले,
एक अरमान है गुडिया.
देखूँ तुझे पहने,
हरे काँच की चूड़ियाँ.

एक पाणिनी...



क्यूँ?
क्यूँ कभी कभी यूँ,
लगा देते हो चुप.
मूक से भाव वह,
समर्पण के तो नहीं,
समर्थन के भी नहीं लगते.

फिर?
फिर क्या है ये?
पलट के जवाब तक,
नहीं आता तुमसे.
जवाब ही क्या अब,
नहीं लौटते टकरा कर,
सवाल तक मेरे.

खीज होती है बहुत,
उचित भी तो है.
शायद मर्यादित ना हो.
मेरे धीरज की भी,
कोई सीमा है लेकिन.

और उस कुढ़न में,
प्रतिदिन लगता हूँ टोकने.
मढ़ता हूँ तुच्छ आरोप,
और होने लगता हूँ गलत.

तो वाह!
गरज उठते हो तुम,
हर तर्क सटीक बैठता है.
शब्द शर बन जाते हैं,
और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ .

वाकई,
शास्त्रार्थ पाणिनी से,
पाणिनी नहीं कर सकता...



कल सुबह जब तुम,
उनींदी आँखों संग उठो.
तो उन्हें धोना मत.
मेरा ख़त तुम्हे मिले शायद.
ना भी मिले अगर,
तो निकाल लेना कोई,
पुराने खतों में से ही.
सभी में तो आखिर,
एक से शब्द हैं.
प्यार-मनुहार, कीमत,
स्नेह-प्रीत, जीवन,
यही सब लिखा है,
कुछ भी अलग नहीं.
पलकें दुखेंगी, मत पढ़ना.
ढलका देना बस,
नेह की कुछ बूँदें.
या तो बह जाएँ,
तुम्हारे सपनों की बाढ़ में,
ये प्रेम शब्द मेरे.
या तुम्हारा स्नेह हर,
शब्द बीज को हरा कर दे.

अजेय....


अब तो याद भी नहीं,
अगणित बार पढ़ा मैंने.
शायद हर पुस्तक को,
उनके सारे अर्थ खंगाले.
गाँव, सूबे, राज्य-देश,
समस्त धरा, लोक-परलोक.
इनकी तो सीमा ही नहीं,
तो अजेय कैसे कोई?

जिस उद्यान बैठ मैंने,
स्वयं से ही तर्क किये.
वहाँ की दूब मरी नहीं,
मेरे या विचारों के बोझ तले.
वायु को सर झुका रास्ता दिया,
वर्षा को संजोया, भीषण,
जेठ को शीश नवाया.
भूमि को बाँध रखा.
फिर भी धरा न मानी,
तो जा घर बसाया,
उसके साथ परदेश में.

अब ना शीत है,
ना वर्षा, ना बाढ़.
ना मेरी पुस्तकें-ग्रन्थ,
ना ही मेरे तर्क-व्यवहार.
मैं हूँ, है मेरे सामने,
विनीत अजेय दूब.......


वस्तुतः रोज ही,
होते हैं उत्पन्न.
मेरे ही ह्रदय में,
आत्मा से मेरी.

अधिकतर तो टकरा कर,
तोड़ देते हैं दम.
ह्रदय की मजबूत,
स्पन्दनहीन दीवारों से.

पर कुछ रिस जाते हैं,
धमनियों-शिराओं से.
और कुछ जाते हैं भाग,
श्वास नलिकाओं से.

कुछ निकलते हैं,
फट कर पोरों से.
भरे भारी सी टीस,
बन कर करुण गीत.

साथ निकल जाते हैं,
कुछ साँस से मेरी.
बन के क्षितिज,
धरा का प्रेम-विचार.

बन के पारे कुछ,
आँखों से बह जाते हैं.
कुछ याद की मानिंद,
कोरों में ही रह जाते हैं.

कुछ रहते हैं सदा,
कानों में गुंजित मेरे.
मैत्री की डोर बन,
पिता के संस्कार.

पर कुछ बहते हैं,
हर क्षण शिराओं में.
अम्मा की आशीष के,
ये शब्द बहुत बलवान हैं.

गीले पंखों की उड़ान....


बहुत भारी हो चला है,
बोझ इन साँसों का.
गीले पंखों की उड़ान,
सही अब नहीं जाती.

युगों से चल रहे,
आत्मा के रण में.
मुठ्ठी शमशीर पर,
धरी अब नहीं जाती.

कैसा ये यज्ञ जहां,
अग्नि, हवन होम भी मैं.
किसी वेद की ऋचाएँ,
पढ़ी अब नहीं जाती.

कर्ण रोज चीखते हैं,
नेत्र कोसते हैं, उनकी.
करुण स्वर लहरियाँ,
सही अब नहीं जाती.

नीरव गीले-शुष्क दिवस,
संध्या के अतिशय अवसान.
अकारण ये सूखी बातें,
कही अब नहीं जाती.

चितेरे से शब्द कुछ,
जो आत्मा पर गढ़े हैं.
कोई क्षणिका तक उनसे,
गढ़ी अब नहीं जाती.

बरसता है जब कभी,
अन्दर का आसमान.
गीले पंखों की उड़ान,
सही तब नहीं जाती.

अंश....


सुनो!
तुम भी दे दो कुछ.
क्या?
अनुराग नहीं दे सकते?
ठीक है, द्वेष या इर्ष्या के,
कुछ शब्द ही दे दो.
वो भी नहीं तो,
श्राप तो दे सकते हो.
बिना कुछ लिए तो,
न जाऊँगा मित्र.
कंटीली बाड़ ही सही,
मेरी समाधि में अंश,
तुम्हारा भी होगा.

दी...


जब सुबह अधूरी सी होवे,
और दी तुम याद बहुत आओ.
थोड़ा काजल चटका देना,
मैं बादल उनसे बना लूँगा.

जब धूप चटख पर सीली हो,
और छत पर जब दी तुम जाओ.
सूरज को आँख दिखा देना,
मैं अपनी धूप बना लूँगा.

जब शाम में चिर सन्नाटा हो,
और मैना से दी बतियाओ.
उसे प्रेम घुमक्का जड़ देना,
मैं शंख ध्वनि सी पा लूँगा.

जब रात अधिक ही बासी हो,
और पानी पीने दी जाओ.
बस हल्का सा मुस्का देना,
मैं नभ में तारे पा लूँगा.

जब शीत बहुत धरती पर हो,
और धूप सेकने दी आओ.
हथेलियाँ अपनी रगड़ देना,
मैं उनसे अलाव जला लूँगा.

जब आतप घोर करारी हो,
और कपडे सुखाने दी जाओ.
कुछ छींटे धरती पर देना,
मैं अपनी ठंडक पा लूँगा.

जब हफ्ते भर अम्बर छलके,
और दी तुम खिड़की पर जाओ.
एक हलकी फूंक लगा देना,
मैं राहें कई सुखा लूँगा.

जब कभी जरुरत मेरी हो,
और याद मुझे दी रख पाओ.
हौले से नाम मेरा लेना,
मैं सरपट दौड़ लगा दूँगा.

स्नेह का नीड़....


बड़े जतन से,
सहेज रखी हैं.
तुम्हारी हर एक,
स्नेहिल मुस्कान.
वैसे भी और कुछ,
याद नहीं आता.
है तुम्हारा परिचय,
ये मनमोहक मुस्कान.
ठहरे और भागते,
शांत या उन्मत.
जीवन के प्रत्येक,
क्षण को जैसे.
दिया तुमने सदैव,
बराबर ही स्थान.
कर्म-धर्म, वचन,
उतार और चढाव.
विफलता-सफलता के,
अगणित पड़ाव.
मानो विफल हों,
बदल पाने में.
चिर औचित्य जो,
गतिशील है तुम्हारा.
वस्तुतः होता है,
जो कष्ट का शिखर.
वहाँ भी ढूंढा तुमने,
शांति का सोपान.
रहस्य रहने का,
हर क्षय से अक्षय.
अबूझ है आज भी,
ये विस्मयादिबोधक अव्यय.
रहे यह मुस्कान,
सदैव मुझे सुलभ.
रखना सजाए भाई,
स्नेह का ये नीड़.

रेतीले गाँव...


ना अमराई,
ना पुरवाई,
ना बूढ़े,
पीपल की छाँव.

खपरैले तब्दील,
हुए ईंटों में.
अब तो हैं,
रेतीले गाँव.

फाग नहीं,
न ईदुलफितर.
नहीं रहे,
चमकीले गाँव.

ज्वार-बाजरे,
की तो छोडो.
कहीं कहीं हैं,
दिखता धान.

ताल हर एक,
अनाथ हुआ है.
मातम में,
डूबे खलिहान.

ना पोशम्पा,
ना ही गिल्ली.
सबको टी- ट्वेंटी,
का ज्ञान.

चिवडा मक्का,
हुआ नदारद.
कोर्नफ्लेक्स की,
नई है शान.

नंगे बच्चों,
की किलकारी.
सरसों की वो,
चौथी क्यारी.

इनकी लाशें,
दफन किए हैं.
घाव से फूले,
टीले गाँव.

बारिश भी क्या,
असर करेगी.
अब तो हैं,
रेतीले गाँव.

क्षणिकाएं....(तरल..)


पानी...

मदिरा मृत्यु,
स्वप्न शांतनु.
और रक्त,
अभिमानी है.
शीतल जिसमे,
जीवन बसता.
सहज सरल,
बस पानी है.




चाशनी....

सुना है मुझसे दूर,
बहुत खुश हो.
जलेबी-रसगुल्ले खा,
चूम लेना ये कागज़.
की मेरी बेरंग नज्में,
भी हो जाएँ मीठी सी.





कहवा.....

आओ बैठो,
कुछ बातें करें.
खोलें कुछ गिरह,
बीती खटास घोलें.
लो याराने की,
आंच पर खौलता,
कहवा मुबारक हो.




चाय...

अब तुम जो नहीं,
तो चाय में चीनी,
कितनी ही डालूं.
मेरी नमकीन शामों का,
सिलसिला खत्म नहीं होता.





गंगाजल...

मानसरोवर में,
ना काशी तीर.
पुष्कर में ना,
सागर क्षीर.
निश्छल नैनों,
में ही केवल.
बसता है,
गंगा का नीर.





दूध....

मांस, अस्थियाँ, मज्जा.
केश, शरीर और सज्जा.
श्वास, नयन और कंठ.
इस सृजन के बाद,
जीवन भी दिया तुमने,
अम्मा देकर दूध.






प्रीत का शरबत.....

माना की नहीं दे पाओ,
तुम सोने की प्याली.
चांदी, पीतल शायद,
लोहे तक की नहीं.
प्रीत की शरबत,
का आनंद,
सुना है सिर्फ,
कुल्हड़ों में मिलता है.






निबोली....

उस वक़्त ज़रा,
कडवापन था.
आज जीवन का,
चिकना चेहरा देख.
घुल जाती है,
ठंडी मिठास.
पिता जी की,
सीख की निबोली.
अब भी बाखूब,
असर करती है.





तरल....

अपाच्य या सुपाच्य,
हर पेय होता है तरल.
विवेक और स्थिति,
करते हैं तय,
कौन सुधा-कौन गरल.

क्षणिकाएं...(शिकायत..)


आखिरी शिकायत........

तुमसे तो शिकायत,
तक नहीं कर सकता.
आखिरी शिकायत तुम्हारे,
ना मिलने की जो है.




कलम माँ है...

मेरे गीतों को कलम से,
अनेकों शिकायत है.
कलम फिर भी लिखती है,
माँ नाराज़ भला क्यूँ हो?





दोस्त तुम्हारे...

सिर्फ तुम ही नहीं,
मेरे खून, निगाह,
साँस-धड़कन,
तुम्हारे इन दोस्तों,
को भी मुझसे,
बासाख्ता शिकायत है.





बढ़ती जूंएं...

तुम्हारी नाराजगी की,
कितनी जूंएं पडीं.
और ये बढ़ती,
ही जा रही हैं.
इससे तो अच्छा,
दे जाते.
तुम शिकायतों,
के चंद छाले.




माँ...

सूरज से-चाँद से,
सरयू पर बने,
पक्के बाँध से.
अरे कह भी दो,
अम्मा मेरे सिवा तुम्हे,
सबसे शिकायत है.





विसियस सर्कल...

एक बात तो,
सच थी तुम्हारी.
रिश्ता डोर नहीं,
विसियस सर्कल है.
मेरे तुम्हारे बीच,
कोई भी नहीं.
तुम्हारे मेरे बीच,
हैं कई शिकायतें.





अँधा आशिक...

काँटा-माली,
खाद-केंचुआ.
गुल के अंधे आशिक को,
इन सबसे शिकायत है.





ना करो...

तुम्हारे बेशुमार,
कच्चे रोजों पर उसने,
शिकायत तो नहीं की.
बेशक ना करो यकीन,
पर बात-बेबात,
खुदा से यूँ रोज,
शिकायत ना करो.