चक्कर थोड़े का....

चाहा सभी ने,
है तो थोडा ही.
के थोडा और होता,
तो थोडा अच्छा था.

थोडी और खुशियाँ,
थोड़े और सुख,
जुटा पाते हम.

दिखा पाते थोड़े,
और लोगों को,
थोडी और चीजें.

थोडी और मेहनत,
थोडी और बचत,
थोडा और त्याग,
थोडी और चोरी,
थोड़े और कस्ट,
थोड़े और दिन,
चलो सहते हैं.

थोडी सी है जिन्दगी,
चलो थोडा और,
रोज मरते हैं.

करो भरोसा....

मूज के दो हाथ दे दो,
एक कच्चा बाँस दो.
छील लूंगा बाँस को मैं,
हँसिया मेरे हाथ दो.

तान दूंगा मैं धनुष अब,
मोड़ के इस बार तो.
बाण लाऊँगा बना बस,
धीर को विस्तार दो.

है नहीं गांडीव तो क्या?
ना अक्षय तूणीर तो क्या?
कर्ण मत समझो मुझे पर,
बस तनिक विश्वास दो.

नहीं मुझमे सूर्य उष्मा.
हाँ नहीं है वज्र सुषमा.
मुझमे रघु का तत्त्व नहीं है,
पास हैं बस हाथ दो.

किन्तु साथ पुरुषार्थ मेरा,
साहस है भावार्थ मेरा.
बाँध दूंगा यह तिमिर मैं,
दीप मुझको नाम दे दो.

मैं-तुम ...(छोटी कविता..)

तुम्हारा तुम होना,
लगता है मेरे,
मैं होने के जैसा.
मेरा मैं होना,
पसंद नहीं मुझे.
ना ही तुम्हे,
तुम पसंद हो.
दे दो मुझे तुम,
मैं तुम्हे मैं,
देता हूँ आज.
तो लो रखो मुझे,
मैंने भी तुमसे,
तुम लिया.
कल से मिलेंगे,
'हम' गंगातीर.

कल रात जब,
व्यस्त थे तुम.
चाँद के साथ,
दिल की बातों में.
और पकडे पकडे,
उसका हाथ.
चले आये छुपते-छुपाते,
बादलों से.
ताक में था मैं,
ताल किनारे डाले जाल.
फाँस ही ली थी मैंने,
परछाई तुम्हारे चाँद की.
हंगामा बरपा अल्ल सवेरे,
परछाई तो नाराज थी ही,
सूरज तक ने भौंहें तानी.
मेरा जाल तक मुझे,
धोखेबाज कहता है.
माना मैंने चाँद तुम्हारा,
चाँद की है ये परछाई.
मेरे से ना जायेगी रखी,
लो, संभालो भाई.

इस शहर में कई पत्थर,
लोग मुश्किल, लोग पत्थर.
जीवटों से पटी धरा है,
धरा पर हैं अटे पत्थर.

कुछ अलग हैं खड़े पत्थर,
प्यार से कुछ सटे पत्थर.
हर शहर में अमूमन,
यहाँ वहाँ कहें पत्थर.

किला कोई जो बनाए,
परकोटे जमा खिंचाये.
बुर्ज हाँ जब भी बनाए,
चुने हमें ही वो पत्थर.

आओ मेरे शहर आओ,
यहाँ भी हैं वही पत्थर.
बुर्ज कईयों को लुभाए,
चढ़ अटारी सजें पत्थर.

किन्तु कोई कह रहा है,
भाई मुझपे चढ़ के जाओ.
मैं धरुंगा इस धरा को,
गगन तुम छू जाओ पत्थर.

भुजा जिसकी बल भरा हो,
ह्रदय बस धीरज धरा हो.
भार सकता है उठा जो,
है परम का पूत पत्थर.

धरा जिसको प्यार सौंपे,
धरण का अधिकार सौंपे.
बुर्ज को वो ही बचाए,
झंझावातों अड़ा पत्थर.

गर्व कब तलवार में है?
गर्व कब अधिकार में है?
सबसे पहले पग बढाए,
गर्व उस व्यवहार में है.

लो ये मैंने लोभ छोडा,
दंभ का ये बुर्ज तोडा.
गर्व मेरा नींव में है,
नींव का मैं स्वर्ण पत्थर.

अंतस में हमेशा,
घुलते हैं जो.
बंद पलकों में ही,
खुलते हैं जो.
नीरव दिवस में,
जो हैं पलछिन.
ऐसे ही होते हैं,
काठ के फूल.

जो नहीं सजा करते,
जूडे में रजनीप्रिया के.
जिन्हें नहीं कर पाते,
स्वीकार स्वर्ग के देव.
रहते हैं मुरझाये,
ना खिलते किसी दिन.
चुप चुप से रोते हैं,
काठ के फूल.

जो हर रात स्वप्न में,
देता हूँ तुमको.
हाथों से तुम्हारे,
मैं लेता हूँ जिनको.
जो हैं नितांत मेरे,
पड़ें ना दिखाई.
मेरी साँसों में जलते हैं,
काठ के फूल.

नेक तालीम....

था तो होशियार ही,
सबसे मदरसे में.
स्कूल में भी वो,
अव्वल ही रहा.
काबिलियत के पर,
क़तर ना सकीं.
मोटी पतली मुश्किल,
किताबें कालेज की.
नाज अब्बू का,
उस्तादों का ताव.
अम्मी का सुकून,
यारों का लगाव.
इंसानी जज्बात और,
रूहानी अल्फाज के बीच.
बस एक गलत लफ्ज़,
पढा था उसने.
आज भी जब,
होती है शिकायत.
गिले की जगह जुबान,
दुआ ही पढ़ती है.


1)

अब हटा दो काफिये,
गजलें मेरी तनहा हुई.
चाँद की बस रात है,
है चाँदनी रुसवा हुई.

2)

आजकल व्यस्त बहुत हैं,
बहाना-ए-आम है उनका.
सब आसमान से स्याही,
चुराने की कवायद है.

3)

एक एक कर मिटा दी,
हर धारी हथेली की.
देखने की जिद थी बस,
कब जाते हो तुम छोड़ के.

4)

के अब महरूम हूँ तुमसे,
या हूँ मरहूम दुनिया में.
मुझे मात्राओं के अंतर,
नहीं महसूस होते हैं.

5)

निगाहों में हया सी कुछ,
जुबान में पाकीजगी सी है.
कलम के देखिये जलवे,
हवा से बात करती है.

6)

अमूमन तो सात दिन,
हुआ किये हफ्तों में अब तक.
पराये शहर इतवार कुछ,
ज्यादा ही दूर लगता है.

विष.... (क्षणिकाएं...)

संदेह....

बहा दो आज या,
भर दो शिराओं में.
हो जाओ स्नेहिल या,
होने दो मुझे दिवंगत.
ना रखो या रखो मुझमे,
अब यह संदेह गरल.



विष-स्वभाव....

सिर्फ करैत या,
गेहुंमन ही नहीं.
विषैले अधिकतर,
होते हैं विचार,
इर्ष्या, द्वेष और,
कटुता-हीनता के.
बच सकता है मनुज,
रखे अगर एंटीडॉट,
धीरज और स्नेह की.




घनत्व.....

या तो प्रेम या विद्वेष,
मेरे गीत एक रंग हैं.
आखिर अलग है घनत्व,
मेरी स्याही, तुम्हारे विष का.
भले एक दवात में,
रखे एक संग हैं.



रूप.....

जो हो कटु,
आवश्यक नहीं की,
हो जहर ही हमेशा.
परिस्थितिवश कभी-कभी,
मनीषियों की होती है,
करेले सी वेशभूषा.



अंतर....

अंतर है रखने,
और करने में धारण,
भले ही मामूली.
समस्त चराचर मगर,
इसी अंतर के चारण.
विष रखें है सभी,
करें बस शम्भू धारण.




अम्मा....

तुममे विष तो ,
है नहीं लेशमात्र भी.
हाँ पीते गरल,
देखा है तुम्हे अक्सर.
तंतु तुम्हारे प्रेम के,
बना देते हैं उसे सुपाच्य.
हलाहल भी अक्षम है,
तुम्हे नीलकंठ बनाने में.

गीत....

कटु हार को,
जीत लिखा.
हर परिस्थिति में,
गीत लिखा.

मान दिया और,
प्रीत लिखा.
तुमको ही बस,
मीत लिखा.

तान तुम्हारी,
ह्रदय बसा के.
सरगम और,
संगीत लिखा.

अम्बर तुमको,
जो भाया तो.
मैंने नभ पे,
गीत लिखा.

साथ थे तुम तो,
पराग दोहे.
विरह में क्रंदन,
गीत लिखा.

तुम प्रिय हो,
प्रिय याद तुम्हारी.
मैंने सपनो के,
बीच लिखा.

कभी ख़ुशी में,
कभी किलकारी.
और कभी तो,
चीख लिखा.

कभी वजह,
बेवजह कभी.
बिना वृक्ष के,
बीज लिखा.

आज तो चाहा,
नहीं था मैंने.
कलम ने खुद ही,
सीख लिखा.

गाते दीपक, जगमग गीत....

उतार दिया तरकश,
खोल दी प्रत्यंचा.
रोष तो था ही नहीं,
क्षोभ भी बहाने लगे.

अपने कष्ट रख दिए,
तनिक ताक पर.
बैठ कर राम बेर,
शबरी के खाने लगे.

अंतस प्रसन्न न था,
पेशानियों पर छुपाया मगर.
जब देख निरीह स्नेह,
हुए विह्वल औ मुस्काने लगे.

जल उठे थे गीत,
हिय में शबरी के,
जले-बुझे हर दीप,
उस दिवस गाने लगे.

जब होती है क्षमा,
दया, मिठास ह्रदय में.
हर रात दिवाली सी,
झमक जगमगाने लगे.

मौसम....

बीती बहार में,
तीन पंखुडियाँ चुरा,
लीं थीं तुमसे मैंने।
कल तुमने वादा,
हक़, याद तक,
छीन ली मुझसे।
माह-ए-अक्टूबर,
पतझड़ है मेरा।



गीली नज़्म...

कूची उठाई,
घोले रंग।
मुझसे मेरे,
बोले रंग।
नज़्म चितेरे,
गीत रचयिता।
आज हमारे,
कैसे संग?
कह दूँ कैसे,
कोई मांगे।
रंगीन दोहे,
गीली नज़्म।



वजह......

अम्मा चूडियाँ तो,
उतार लिया करो,
मारते वक़्त मुझे।
मुझे तो लगती नहीं,
तेरी कलाईयाँ,
कट जाती है।
पापा कहते हैं,
माएँ प्रायश्चित,
करती हैं पहले,
फिर गुस्सा जताती हैं।



समझ का फेर....

थे सद्गुणों के,
सुविचारों और,
सौम्य जीवन के घोतक।
आचरण मनीषियों के।
आचमन का ठठा कर,
अपमान किया।
परफेक्ट प्रेशर शावर,
लगवाने वालों ने।


अक्षमता....

सदा मधु-उल्लास,
ही नहीं होती,
कूक कोयल की।
बस भेद नहीं,
कर पाते हम।
काश यही अक्षमता,
आ जाती हममे,
माँ-पिता मित्रों हेतु।



भौतिकता...

पुलकित हिय के,
गीत को जलाने।
काफी हैं तुलना के,
तनिक पैमाने।
मन के रच नहीं,
चाहिए रखने।
भौतिक बाट पर...........
सब  समझे...कौन जाने...???

बाँझ...

अविरल तेरा ज्ञान मनुज,
है अप्रतिम तेरी सोच।
कीर्ति फैली चंहू दिशा में,
सकी ना कस्तूरी खोज।

जिस पिता का एक निवाला,
कल तक था बुड्ढा बोझ।
उसके भूखे मरने पर देता,
सौ ब्राम्हण को मृत्यु भोज।

इक चौरा तुलसी का अंगना,
और तनिक गंगाजल।
माँगा नहीं कभी था तुझसे,
माणिक जडित धरातल।

क्यूँ पढ़ डाली गीता तूने,
दिए काण्ड सब बांच।
स्नेह नहीं वारा जीवन में,
अब देता चन्दन आँच।

उसका तरण भला हो कैसे,
खेवे कौन भव नैया।
दंभ में देता, ना के शोक में,
बेटा दान में गईया।

ऐसी संतति की उत्पत्ति,
से अच्छा है रहना बाँझ।
दिवस में ही संज्ञान रहेगा,
कब है उतरनी साँझ.

अधूरा उपन्यास....

निकल के चौदहवें,
पन्ने से अहा.
अपने धानी लिबास में,
वो आई निशा ओस नहा.

मैं हाथों में लालटेन धरे,
उसे बस एकटक देखता रहा.
चमकती रही वो बेइन्तेहान,
मैं भी बेपनाह जलता रहा.

मैं तो सब जानता हूँ,
गम सारे, खुशियाँ भी सभी.
कहो तो बदल डालूँ सारे,
किरदार सभी नाम अभी.

सोचा के पूछ लूँ ये नाम,
ठीक है की नहीं.
पर ना मैंने ही कहा,
ना बात कोई उसने कही.

मुझे खटका तो लगा,
ऐसा ना पहली बार हुआ.
मेरे दूसरे उपन्यास की नायिका,
को भी मुझसे प्यार हुआ.

सुबह उपन्यास के पन्ने,
थे बिखरे चारों तरफ.
जैसे हो रात में,
रद्दी का कारोबार हुआ.

हाथों की लकीरें....

एक टेढी, एक सीधी,
दो टूटी, कुछ खुरची.
कुछ मोटी, कुछ पतली,
कभी बँटती, कभी जुड़ती.
मेरे गाँव की पगडण्डी सी,
है मेरे हाथों की लकीरें.

वो हथेली के तीन अन्गुलद्वीप,
जैसे खेत हों सुजानसिंह के.
छोटे हैं पर कर्मठ छालों से,
लहलहाती है सरसों की बाली.

अंगूठे के ठीक नीचे ही,
जो बड़ा मैदान है ना?
बाँध रखा है जीवनरेखा ने,
जिजीविषा के अठान से.

हाँ वही सूखे से कटा-फटा,
पर मेघ आयें ना आएं.
हल तो चलेगा औ यकीनन,
गेँहू उपजेगा इस बार.

और कलाई के पास,
भरा इलाका है भाग्य का.
वहां हम सब्जियाँ उगाते हैं,
मौसमी नसीब का क्या भरोसा.

कभी फसल अच्छी हो जाती है,
तो रब की हज़ार मेहर है.
वरना मेड़ों पर हथेली किनारे,
आम हैं अचार के लिए.

इस साल नहीं हुई बरसात,
देखो बीच हथेली का गड्ढा.
कई नहरे नालियाँ बनाई हैं.,
अबकी धान ना सूखने देंगे.

जब भी बहुत याद आती है,
खोल लेता हूँ हाथ अपने.
मेरे गाँव की पगडण्डी सी,
है मेरे हाथों की लकीरें.

रुदन योद्धा का....

गीत प्रीत के,
तुम पर वारूँ.
ह्रदय नयन सब,
तुम पर हारूँ.

दे दूँ तुमको,
रवि सुधांशु.
या स्वर्ण मृग,
कहो तो मारूं.

ऐसे वचन मैं,
दूं तो कैसे.
सामर्थ्य अपना,
कैसे बिसारूँ?

यह सब मुझसे,
कभी ना होगा.
कैसे मैं ओढूँ,
प्रणय का चोगा?

ऐसा नहीं की,
प्रेम नहीं है.
वृक्ष ह्रदय का,
ठूंठ नहीं है.

लेकिन इस योद्धा,
की नियति.
है दुंदुभि,
शहनाई नहीं है.

रण ही मेरा,
निर्वाण बना है.
अब और कोई,
अस्तित्व नहीं है.

दूजी का तुमको,
स्थान ना दूंगा.
मान ना दूँ,
अपमान ना दूंगा.

या तो मृत्यु,
वरण करेगी.
या ये खडग,
ही साथ रहेगी.

बस नीलकंठ,
मत कहना मुझको.
कंठ में यूँ तो,
गरल धरुंगा.

अमर नहीं हूँ,
मैं शंकर सा.
इस विष से ही,
कभी मरुंगा.