कुर्सी टेबल,
कलम-दवात,
कूची-पानीरंग.
मीठी रोटियाँ,
गुड वाली.
इनके बीच,
देखता था,
चाँद जितनी ऊँची,
दरवाजे की साँकलें.
जिन्हें सिर्फ अब्बू,
खोलते थे.
माँ से बतियाते,
रोटियाँ दो,
कम ही खाते.
टाँकते टूटा बटन.
प्रेस लगाते,
साँझ धोई,
इकलौती पतलून पर.
पूछने पर भी,
"कुछ नहीं बेटा"
बोलते थे.
कोई बहत्तर,
साल पुरानी,
दिवाली के,
कबाड़ से,
निकाल फेविकोल.
हनुमानी चश्मे,
का फ्रेम जोड़ते.
पुरानी डायरी में,
जाने क्या तोलते थे.
कक्षा दो, फिर तीन,
पार करता रहा.
मैं, मेरा कद,
बढ़ता रहा.
कल अब्बू से,
नज़र बचा.
ये साँकलें,
मैंने भी खोलीं.
तो चिलचिलाता,
सूरज कहता है.
"चल भाग!
तू खुदा नहीं है,
मर जाएगा."
20 टिप्पणियाँ:
पूरे जीवन की झांकी. दार्शनिक अंदाज़. जिस परिपाटी पर हम अपने पूर्वजों को देखते हैं एक अंतराल के बाद स्वयं को उस ओर पग बढ़ाते पाते हैं.
...... तो चिलचिलाता, सूरज कहता है : "चल भाग! तू खुदा नहीं है, मर जाएगा."
@ जीवन की नश्वरता को व्यक्त करती कविता.
बहुत ही सीधी-सादी भाषा में बहुत कुछ कह दिया है अविनाश जी.
बधाई
मनोज खत्री
behad khoobsurat.
ek sampoorn jivan ... saanklon ke piche kai masoom sawal
kam shabdon me jiwan ko purnta se paratut karna aapki kala hai.. bahut badhiya kavita
अबिनास बाबू… आखिरी लाईन पर एकदम आँख छलछला गया.. आज कुछ नहीं!!
.."चल भाग!
तू खुदा नहीं है,
मर जाएगा."
..मार्मिक अभिव्यक्ति. इस पोस्ट को पढ़कर समझा जा सकता है कि सरल शब्दों में भावनाओं की धार कैसे पैनी हो सकती है.
अद्भुत चित्रण... कल हिन्द युग्म में निखिल की कविता पढ़ी, आज आपकी..दोनों कविताओं में बचपन
ठोकरों में बड़ा होता है और याद आते हैं..अब्बू.
लाजवाब!!!!!!
साँकलों के माध्यम से जीवन की कहानी।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
Bahot Bahot Sundar varnan..
Shubhkaamnaayen,
Chirag
आप सभी का ह्रदय से आभार!
देवेन्द्र जी,
इतनी प्रशंसा का बहुत धन्यवाद, जिसके मैं जरा भी योग्य नहीं हूँ.
और बचपन कहाँ ठोकरों में बड़ा होता है...बचपन अब्बू की घनी छाँव में बड़ा होता है.
अब्बा ही वो खुदा होता है तो साँकलों के पीछे जाता है, रोज लौटता है, मुस्कुराता.
बेटे में खुदा बनने का सामर्थ्य नहीं होता...तभी तो सूरज यूँ कहता है.
फिर से धन्यवाद.
bahut kuch kah diya hai aapne...
very nice....
Meri Nayi Kavita Padne Ke Liye Blog Par Swaagat hai aapka......
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तो चिलचिलाता,
सूरज कहता है.
"चल भाग!
तू खुदा नहीं है,
मर जाएगा.
माता पिता हमेशा बच्चों को अपनी छाँव में रखते हैं ..कहाँ धूप आने देते हैं संघर्षों की....पर फिर भी जूझना तो पड़ता है ...बहुत सुन्दर रचना
सभी का आभार
बहुत गहरे भाव छिपे हैं इन शब्दों में .... इतिहास दोहराता है अपने आप को ....
बेह्तरीन भाव,
sir aap bahut hatkar likhte ho,very different.........
आभार!
@अमित.. बहुत शुक्रिया भाई. सर ना कहो भाई, आपने पढ़ा अच्छा लगा.
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