उचित चुनाव....


सलिल सरोवर ढक कर रखते,
हे निमेषद्वय सुन लो.
श्रावण की बूंदों संग आए,
मल्हार कोई एक चुन लो.

मैं दीपक वर्ति संग जलता,
क्यूँ बन शलभ चुनो आकुलता?
बन जाओ स्नेहातुर झीरी,
कोई मदिराघट चुन लो.

राख की रेख देह है मेरी,
धूम्र चूमता निशदिन देहरी.
क्यूँ कालिख-कालिख धुनना है?
सदाबहार वन चुन लो.

ना मैं कुंदन, ना मैं चन्दन,
ना अभिनन्दन में तारागण .
हे हठिनी! मुदितमुख नव्या,
अब तो नभ की सुन लो.

धनु दर्पक का नहीं है मेरा,
प्रेम को ज्वालादल ने घेरा.
वेणी धू-धू जल जायेगी,
केश गूँथ लो, बुन लो.

जेठ का दावानल मैं हत हूँ,
शीत-शरद के तप में रत हूँ.
कर्म का क्रम टेरना कब तक?
कोई अन्य गीत अब गुन लो.

लावण्या, चम्पई, हरिणी, सुकेशिनी,
लतिका, गतिका, ह्रदयविचरिणी .
लोचन मेरे नहीं कह पायेंगे,
अब अन्य नयनद्वय चुन लो.

मैं अरण्य का ठेठ सिंह हूँ,
रण हूँ, मैं हिंसा का चिन्ह हूँ.
पिक की तुम मधुमासी बोली,
वृंत मलय का चुन लो.

आरोहण, अवरोहण, दोहन,
मेरी जिजीविषा के मित्र हैं.
प्रेम के पल्लव रुक के बढ़ाऊं,
मत सोचो, सच बुन लो.

यह सब संभवतः ना कहता,
चुप रहता हूँ, चुप ही रहता.
किन्तु एक 'त्रुटी' का स्नेह है,
सौगंध उसी की सुन लो.

ना रखो आसक्ति खडग पर,
कोई देव प्रणय का चुन लो.

15 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जेठ का दावानल मैं हत हूँ,
शीत-शरद के तप में रत हूँ.
कर्म का क्रम टेरना कब तक?
कोई अन्य गीत अब गुन लो.

बहुत खूबसूरती से सारी हिदायतें दे डालीं ....चुनाव करने को बचा ही क्या ? :):)

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

रश्मि प्रभा... said...

waah, vismit karti rachna

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।

ना रखो आसक्ति खडग पर,
कोई देव प्रणय का चुन लो.

स्वप्न मञ्जूषा said...

हे ! अद्वितीय, अनिर्वचनीय, अपरिमेय
कवि कुशाग्र, कविता कल्पनातीत
इस प्रवासी प्रत्यागत की
यह टिप्पणी भी गुण लो...
हा हा हा हा....

प्रवीण पाण्डेय said...

एक एक शब्द नृत्य करता हुआ आता गया और पता ही नहीं चला कि कब कविता हो गयी। अद्भुत प्रवाह।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अबिनास बाबू ! हमरा टिप्पणी चुक जाएगा, मगर आपका सब्द, भाव, अभिव्यक्ति, सन्योजन नहीं चुकने वाला है... केतना सुंदर अनुरोध है कि कोई भी मजबूर हो जाएगा प्रणय देव चुनने के लिए..आज हमको पंडित भरत ब्यास का एगो गाना का लाइन याद आ गया, तुम प्रनय के देवता हो मैं समर्पित फूल हूँ!!
धन्य हो गए हम..

संजय @ मो सम कौन... said...

कविवर,
अभिभूत कर दिया है।
ऐसी अलंकृत कविता पर अपनी भाषा में टिप्पणी नहीं करना चाहता, तुम्हारे जैसे शब्द अपने पास हैं नहीं,
फ़ंसा दिया है यार तुमने।

इतना सुन लो, जितना वरजोगे उतनी ही आकुलता से तुम्हें ज्यादा चाहा जायेगा।

वैसे तो सारी ही कविता अद्वितीय है, लेकिन
’मैं अरण्य का ठेठ सिंह हूँ,
रण हूँ, मैं हिंसा का चिन्ह हूँ.
पिक की तुम मधुमासी बोली,
वृंत मलय का चुन लो.’
ये पंक्तियां अपने को बहुत भायी हैं।

’हैट्स ऑफ़’ का हिन्दी तर्जुमा क्या होगा? वही समझ लेना।

shikha varshney said...

जेठ का दावानल मैं हत हूँ,
शीत-शरद के तप में रत हूँ.
कर्म का क्रम टेरना कब तक?
कोई अन्य गीत अब गुन लो.
वाह ...कितना सुन्दर लिखा है ...बेहतरीन ..

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

Apanatva said...

aisee hindi !!!!

wah wah...........nikal hee gayee........adbhut.shavd chayan sunder bhavo kee abhivykti........
sone par suhaga ise hee kahte hai........

रचना दीक्षित said...

लाजवाब अभिय्वाक्ति और शब्द संयोजन

संजय भास्‍कर said...

वाह ...कितना सुन्दर लिखा है ...बेहतरीन ..

अनामिका की सदायें ...... said...

कितनी बार कहू.....क्या हर बार कहूँ....????
कौन मासहब (मास्टर जी) थे आपके जरा हमें भी पता बता दो....में भी हिंदी सीख आऊं.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..इस कविता के शब्द प्रवाह ने मन मोह लिया.
ना रखो आसक्ति खडग पर,
कोई देव प्रणय का चुन लो.
..वाह!

Avinash Chandra said...

आप सभी का बहुत बहुत आभार