तुम्हारी कीलें...

बीती बारिश छू कर,
मेरी अँगुलियों को,
जाने कैसा कैसा,
कर दिया था मन.

अंतस तक उतर,
गए थे तुम.
बना लिया था,
घर वहाँ तुमने.

बड़े ठाठ से,
रोज धडकनों पर.
चढ़ कर उतर कर,
आते थे तुम.

और दिन में मैं,
सहेजती थी,
खुशबू तुम्हारी,
आत्मा के आस पास.

ना रहे सुध और,
तकलीफ हो तुम्हे.
बिना साँसों के,
चढ़ने हिय तक.

अपलक कई शामे,
काटी मैंने सावन में.
यकीं मानो फुहार बहार,
सबसे बेखबर.

तुम्हे पलकों से,
आँखों में उतार.
फिर करीने से,
दिल में रखना.

बड़ा पुरसुकून था,
ये सब कुछ ही तो.
तुम भी हमेशा,
खुश ही दिखते थे.

जाने क्यूँ फिर,
उस रोज तुम.
लाये खरीद कुछ,
कीलें संदेह की.

कह देते मुझसे,
रोक के साँसे अपनी,
मैं तान देती नसें,
तुम्हारी अलगनी को.

पर तुमने मर्म को,
एक एक कर,
बेध दिया न,
बिना परवाह किये.

जाना था तो,
चले जाते चुपचाप.
क्या जरुरत थी,
बेध के जाने की.

देखो ना सर्दी में भी,
मैंने दस्ताने नहीं पहने.
शायद आसमान छलके,
शायद तुम आओ...
फिर अंगुलियाँ छूने...

2 टिप्पणियाँ:

शरद कोकास said...

सुन्दर प्रेम कविता ।

रश्मि प्रभा... said...

pyaar aur shak ke madhya ek ati khoobsurat bhawnaaon ko chitrit karti tumhari lekhni.......