इतनी साफगोई से,
कैसे कह जाते हो.
बिना किसी शिकन के,
खड़े रह जाते हो.
मैं तो नहीं पाती,
कहीं ठोस तल कोई.
पैर क्या टिकाऊं मैं,
कंधा जो हटाते हो.
ठीक है की सत्य है,
तर्कपूर्ण कृत्य है.
किन्तु क्यूँ पका दिया,
और भी जलाते हो.
मैं तो द्वन्द में पडी,
रजनी-दिवा एक घडी.
देखती हूँ स्वप्न तुम,
स्वप्न तोड़ जाते हो.
रो मैं देती हूँ प्रिय,
फूट फूट जाती हूँ.
सामने खड़े हो पर,
रोक नहीं पाते हो.
उचित हो मगर तुम्ही,
कह जो जाते हो खरी.
क्षोभ इतना है मगर,
कैसे मुस्कुराते हो.
1 टिप्पणियाँ:
bhavnapurn rachna...bahut achchhi lagi...
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