ऊँचा है ललाट तुम्हारा,
तना गर्व से है सीना.
किन्तु अहंकार की जगह,
तुम सहज सत्कार रखते हो.
उबाल है पवन में तुम्हारी,
धूप में अतिशय पराक्रम है.
किन्तु छूते हो बड़े प्रेम से,
पिता सा व्यवहार रखते हो.
वनस्पति-जल से पाकर,
कटु व्यवहार, विछोह भी.
देते हो पवित्र मातृप्रेम,
मन में नहीं विकार रखते हो.
अलौकिक नहीं निस्संदेह तुम,
किन्तु सिर्फ तुम ही हो जो.
दे सको शत्रु को रण में,
एक अलग तलवार रखते हो.
कैसे नापे कोई वेग तुम्हारा,
जब कभी थमते ही नहीं तुम.
मरा भी नहीं करते कभी,
वीरगति का विचार रखते हो.
हर कोस बदलता है पानी,
और सात कोस बदले वाणी.
किन्तु हर एक वाणी में,
वीणा के जैसे तार रखते हो.
कह देते हो तुम 'सा' सबको,
वृक्ष, पशु क्या मानव सबको.
प्रीत की डोली सजा स्नेह से,
आत्मीय मनई कहार रखते हो.
बिन बरखा, बिन दोमट के,
बिना दंभ, बस स्नेह से खट के.
चैत गुलाब जो खिला सके,
तुम ही वो अधिकार रखते हो.
वाकई हर कण-कण में तुम्हारे,
बसते हैं कई-कई रजवाड़े.
शरण दे सके श्रीनाथ तक को ऐसे,
चित्तोड़ रखते हो, मेवाड़ रखते हो.
1 टिप्पणियाँ:
rajasthaan par bahut khoobsurat rachna...badhai
Post a Comment