दो विदा...

अब मत पकडो पतवार मेरी,
धारा को ऊपर आने दो.
अंजुरी से नदी घटेगी नहीं,
मुझको अब डूब ही जाने दो.

मैं नहीं दोष तुमको देता,
ना रोष नियति पर खाता हूँ.
किन्तु अनचाहा गीत सही,
जो बजता है बज जाने दो.

ऐसा तो नहीं की कहा नहीं,
तुमने जो कहा वो सुना नहीं.
किन्तु वायु ही घाती थी,
तो मुझे घात यह खाने दो.

समझो ना है संदेह मुझे,
होने का तुम्हारा अग्निशिखा.
लेकिन मैं कोई दीप नहीं,
हूँ शलभ, भस्म हो जाने दो.

ना रक्त तेरा न रक्तिम हूँ,
ना की मैं धरा पर अंतिम हूँ.
मिल जायेंगे सौ मीत नए,
तेरी अप्रतिम प्रीत को पाने को.

अब अम्बर अम्बुज कहो नहीं,
मुझे सूर्य-ध्रुव का नाम न दो.
ज्योति से पीडा होती है,
मुझे तिमिर में अब घुल जाने दो.

जो कही नहीं तुमने मुझसे,
या कही तो मैंने सुनी नहीं.
ऐसी बातों में क्या रखा,
उन्हें अंतः में सो जाने दो.

यायावर हूँ अज्ञानी हूँ,
अक्खड़ हूँ तनिक अभिमानी हूँ.
अब त्याग कहो या कहो अहं,
मुझे फिर से पथिक हो जाने दो.

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