अपेक्षित..


होगे महनीय तुम, उत्तम,
सामर्थ्य नहीं, नहीं झुठलाऊंगा।
ऊसर थल- जीवंत कौमुदी तुमसे हैं,
होंगे, प्रश्नचिन्ह नहीं लगाऊँगा।

कहोगे तो पढ़ दूँगा ऋचाएँ,
मंत्र संभवतः साथ में दोहराऊँगा।
जो गाते हो गान, होंगे रुचिकर,
तो सहर्ष मैं भी गाऊँगा।

श्रद्धेय होंगे यदि विचार किसलय,
मैं भी रचूँगा उन पर गीत।
तुम्हारे तय मानकों पर सब,
राग-ताल-झंकार बजाऊँगा।

तुम्हारे अखंड नाद आलापों में,
जोडूँगा उद्धत मधुकर अध्याय।
लगेगा अनुकरणीय पथ तो,
स्वेच्छा से तुम्हारा अनुयायी कहलाऊँगा।

किन्तु मेरा रच मैं स्वयं हूँ,
रचूँगा स्वायत्त स्वत से ही।
केवल तुम्हारी अनुशंसा हेतु,
निःसृत सृजित न पगुराऊँगा।

16 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

किन्तु मेरा रच मैं स्वयं हूँ,
रचूँगा स्वायत्त स्वत से ही।
केवल तुम्हारी अनुशंसा हेतु,
निःसृत सृजित न पगुराऊँगा

बहुत सही और सार्थक बात ...सुन्दर प्रस्तुति

नव वर्ष की शुभकामनाएं

संजय @ मो सम कौन... said...

"केवल तुम्हारी अनुशंसा हेतु,
निःसृत सृजित न पगुराऊँगा"

यही यथेष्ट है। सदा ऐसे ही रहो, मौलिक।
पैर जमीन पर, इरादे आसमान से ऊँचे।

हृदय से शुभकामनाएं।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अविनाश जी! हिमालय से अटल इस स्वीकारोक्ति पर दुष्यंत जी की इन पंक्तियों को ही दोहराना चाहुँगा आपके लिये जा तेरे सवप्न बड़े हों!!

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

तुम्हारे तय मानकों पर सब,
राग ताल झन्कार बजाऊंगा।
अति सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई।

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत सुन्दर पंक्तिबंध। लिखना स्वान्तः सुखाय हो पर उसमें सकल-विश्व-कल्याण के बीज निहित हों।

संजय भास्‍कर said...

नूतन वर्ष आपके लिये शुभ और मंगलमय हो...

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

कबीर+कुमार गन्धर्व+वसुन्धरा

नीरभय निरगुन गुन रे गाऊँगा, गाऊँगा
शून्य शिखर पर अनहद बाजे जी
राग छतीस सुनाऊँगा, सुनाऊँगा

यह जिद और आत्मविश्वास तो रहने ही चाहिए। शुभमस्तु।

मुदिता said...
This comment has been removed by the author.
मुदिता said...

अविनाश..
किन्तु मेरा रच मैं स्वयं हूँ,
रचूँगा स्वायत्त स्वत से ही।
केवल तुम्हारी अनुशंसा हेतु,
निःसृत सृजित न पगुराऊँगा।

बहुत सच बात कही तुमने....सृजन स्वयं का ही होता है....बहुत बहुत शुभकामनाएं ...नववर्ष मंगलमय हो

अनामिका की सदायें ...... said...

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

सदा said...

बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

प्रतिभा सक्सेना said...

अंतिम छंद का कथ्य तो बहुत प्रभावी ,और 'पगुराऊँगा' का प्रयोग बहुत उपयुक्त -भाव पूरी स्पष्टता से व्यंजित हो रहा है
नव वर्ष आप के लिए बहुत कुछ -आपकी रुचि के अनुरूप ,ले कर आए !

रंजना said...

क्या कहूँ इस मुग्धकारी प्रभावशाली लेखन पर,अभी तो नहीं सूझ रहा...

ऐसी ही अद्वितीय निर्बाध रचती रहे आपकी लेखनी...अनंत शुभकामनाएं !!!!

सोमेश सक्सेना said...

अदभुत! मात्र कथ्य ही नहीं भाषा ने भी मुग्ध कर दिया।

आप उस भाषा में सृजन कर रहे हैं जो धीरे धीरे विस्मृत होती जा रही है। कहना चाहिए कि विलुप्ति के कगार पर है।

हिंदी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं मे आपका अधिकार न केवल प्रभावित बल्कि चमत्कृत करता है।

सोमेश सक्सेना said...

अरे मैने तो एक ही बार पब्लिश किया था। जाने कैसे इतनी बार हो गया। सर्वर की समस्या है। कृपया एक को छोड़कर बाकी सब को हटा दें।

Avinash Chandra said...

आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद।
@सोमेश जी,
हटा दिया है, कोई दिक्कत रही होगी।
दोनों भाषाओं!!
वो कैसे?
आपने दूसरा ब्लॉग भी देखा?
आभार!