अब चीर के सप्त वितानों को,
औ तोड़ के प्रति प्रतानों को।
मधु-संकुल से बाहर निकलो,
रज-विरज में प्राण बहाने को।
अगणित युग से बन कर योगी,
निर्बंध ध्यान से क्या होगा?
यह मूठ असि की हाथ धरो,
विगलित हर ऋचा बचाने को।
यह लब्ध पुण्य जो अर्जित हैं,
पाथेय में काम न आयेंगे।
पथ में जो शूल हैं, ढेले हैं,
पर्याप्त हैं विहस उठाने को।
उत्ताल, मंजु जो रहती थीं,
सब श्रांत दिशाएँ दिखती हैं।
नवोन्मेष की आस में हैं बैठीं,
तुमसे ही न्यास कराने को।
सौ कुंजर सा गर्जन भर दो।
प्रशमन का पथ इंगित कर दो।
पूजार्ह रक्त पुलकित दे दो,
गंडक का वर्ण छुडाने को।
लावण्या की कवरी से छन,
उच्छ्वास अनिल तो आती है।
किन्तु रण की यह प्रेत पवन,
क्या कम है श्वास चलाने को?
जीवन की सौ वीथिकाएँ हैं,
जितनी हैं, सब दुविधाएँ हैं।
जो उत्स है वह कम्पित कर दो,
अपनी ऋजु विमा बनाने को।
मौलसिरी के सुमनों से,
कितना आसव बनवाया है?
उनको अब सान्द्र तनिक कर दो,
घावों पर लेप लगाने को।
कितने दिव तम ने पी डाले,
सौ युग केलि के जी डाले।
अब कुछ ऊँचे सोपान गढ़ो,
जा उससे आँख मिलाने को।
कब तक हा विप्लव! गाओगे?
हो श्लथ, मुख तक ना उठाओगे?
माना दबीत का शैशव हो।
पर्याप्त हो ध्वजा उठाने को।
इस सिकता सैकत भूमि में,
पाटल की स्पृहा पुरानी है।
अहेतुक वर में दे दो कुछ,
उद्धत बीज, ऊसर लहराने को।
इतिहास नहीं आख्यान पढ़े,
शांति-शांति का ध्यान मढ़े।
समर किन्तु आवश्यक है,
इतिहास भूगोल बचाने को।
37 टिप्पणियाँ:
बहुर सुन्दर रचना है लेकिन हिंदी शब्दकोष खोल कर देखना होगा! फिर टिप्पणी दूंगा!
hope for peace & be prepared for war, that's the true spirit.
इस कविता का सा आव्हान बहुत भाता है। प्रेम, शांति अगर श्रेयस्कर हैं तो युद्ध सन्नद्धता वांछनीय।
"जहाँ शस्त्र-बल नहीं, शास्त्र भी सिसकते हैं रोते हैं,
ऋषियों को तप से सिद्धि तभी प्राप्त होती है, जब पहरे पर स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते हैं" कुछ ऐसी ही थीं न पंक्तियाँ?
अविनाश, अद्वितीय सम(कम से कम मुझ जैसे के लिये)।
ओज पूर्ण रचना।
सुन्दर शब्दों से सजी...ओजपूर्ण भाव लिए ख़ूबसूरत कविता
निराशा की स्थितियाँ, समर का आह्वान, सुन्दर कविता।
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अब चीर के सप्त वितानों को,
औ तोड़ के प्रति प्रतानों को।
@ प्रति प्रतानों से क्या निहितार्थ है?
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अगणित युग से बन कर योगी,
निर्बंध ध्यान से क्या होगा?
यह मूठ असि की हाथ धरो,
विगलित हर ऋचा बचाने को।
@ योगियों का ध्यान क्या केवल आसन मात्र हुआ करता था? अथवा योगियों के निर्बंध ध्यान से तात्पर्य योजनाओं वा व्यूह-रचनाओं से नहीं ले सकते?
ऋचा (में निहित सूत्र) विगलित (नष्ट) क्योंकर होगा जब तक उसे कार्यान्वित करने का निर्बंध ध्यान न किया जाये.
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यह लब्ध पुण्य जो अर्जित हैं,
पाथेय में काम न आयेंगे।
पथ में जो शूल हैं, धेले हैं,
पर्याप्त हैं विहस उठाने को।
@ लब्ध पुण्य क्या पाथेय की भाँति हैं? पाथेय से मतलब, रास्ते में खाने योग्य जो चना-चबेना रख लिया जाता था, उसी से हैं ना? या फिर कुछ और तात्पर्य है?
धेले क्या टाइपिंग मिस्टेक तो नहीं ..... शायद ढेले से मतलब है.
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पथ में जो शूल हैं, ढेले हैं,
पर्याप्त हैं विहस उठाने को।
@ एक सुन्दर उपदेश निहित है. पाथेय में नष्ट होने वाले समय को भी शूल और ढेले उठाने में लगाने को प्रेरित करना वास्तव में निर्बंध साधना ही तो है. इस तरह का योगी कर्मयोगी कहलाता है.
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प्रतुल जी,
@प्रति प्रतानों
यहाँ 'प्रति' का आशय प्रत्येक से है, अथ 'सभी जाल-जंजाल'.
@योगियों का ध्यान क्या केवल आसन मात्र हुआ करता था?
नहीं, ऐसा नहीं है.
@योगियों के निर्बंध ध्यान से तात्पर्य योजनाओं वा व्यूह-रचनाओं से नहीं ले सकते?
अवश्य ले सकते हैं.
यहाँ सूत्रों/ऋचाओं के रक्षार्थ (स्व के लिए ही नहीं, स्वजनों के लिए भी) असि उठाने की बात निहित है.
व्यूह-रचनायें एवं योजनायें इस ध्यान में निहित हो सकती हैं, किन्तु उनका पालन संभवतः रणक्षेत्र में ही होगा. ऐसा मेरा सोचना/मानना है.
@धेले टाइपिंग मिस्टेक ही है, ठीक करता हूँ.
@पथ में जो शूल हैं, धेले हैं,
पर्याप्त हैं विहस उठाने को।
यहाँ अधिक उचित पाथेय (मतलब ठीक ही लगाया है आपने) जुटाने को कहा गया है.
अंत में, शांति/साधना/यज्ञ/ध्यान/प्रवचन किसी को भी अनुचित नहीं कहा (या ऐसी चेष्टा की).
हाँ, 'श्रेयस्कर' जो लगी मुझे, वह राह बताई.
आपने इतने मनोयोग से इतना समय दिया, बहुत धन्यवाद.
और हाँ, टंकण त्रुटी के लिए क्षमाप्राथी हूँ.
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उत्ताल मंजु जो रहती थीं,
सब श्रांत दिशायें दिखती हैं।
नवोन्मेषण की आस में हैं बैठीं,
तुमसे ही न्यास कराने को।
@ अटपटा शब्द संयोजन. मंजु के साथ उत्ताल जँचता नहीं. "नवोन्मेषण आस में हैं बैठीं." 'की' अतिरिक्त आ गया है शायद.
दिशाओं द्वारा योगी की प्रतीक्षा में थक कर बिना सजे बैठ जाना, विरह-उत्कंठिता नायिका का चित्र अंकित करता है.
वह वासकसज्जा बनकर प्रतीक्षा कर-करके ऊब गयी लगती है.
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bahut sunder rachna
is bar mere blog par
"main"
समर किन्तु आवश्यक है।
इतिहास भूगोल बचाने को।
अति उत्तम रचना।
प्रतुल जी,
'नवोन्मेष' की जगह गलती से 'नवोन्मेषण' लिख गया. संभवतः इस कारण आपको 'की' की अधिकता लगी होगी.
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सौ कुंजर सी गर्जन भर दो,
प्रशमन का पथ इंगित कर दो।..[spasht hai]
पूजार्ह रक्त पुलकित दे दो,
गंडक का वर्ण छुडाने को।
@ श्रेष्ठ पंक्तियाँ.
शायद 'कुंजर सा गर्जन' होना चाहिए.
पूजा का मूल्य रक्त से चुकाने की बात वह भी सहर्ष, गालों की लालिमा नहीं चाहिए दिशा-सुन्दरी को. वाह!
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लावण्या की कवरी से छन,
उच्छ्वास अनिल तो आती है।
किन्तु रण की यह प्रेत पवन,
क्या कम है श्वास चलाने को?
@ गदगद हूँ.
चाहता तो था कि एक बैठक में पूरी समीक्षा करता लेकिन घरेलू कार्यों को करने के कारण कई बैठक लगानी पड़ रही हैं. क्षमा करना अविनाश.
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इस सिकती सैकत भूमि में,
पाटल की स्पृहा पुरानी है।
अहेतुक वर में दे दो कुछ,
उद्धत बीज, ऊसर लहराने को।
@ दिशा-सुन्दरी ने अहेतुक वर के रूप में योगी से उद्धत बीज की कामना की... दूरदृष्टि है उसके पास. वह परोपकारिणी लोकसेविका अधिक लगती है.
उसकी इच्छाएँ गुलाबी नहीं. अथवा उसे बलूई भूमि पर हरी घास की सीधी कामना पुरानी लगती है.
उसे वह बीज चाहिए जिसमें स्वयं ऊसर में लहराने की इच्छा हो.
आज यही इच्छा निर्लिप्त समाजसेवा/लोकसेवा को प्रेरित करती है.
...... कमाल का चिंतन अविनाश आपका. यह केवल कविता नहीं है इसमें संदेशों का जमावड़ा है. यदि समझ आयें तो किसी उपदेश से कम नहीं है यह कविता.
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इतिहास नहीं आख्यान पढ़े,
शांति-शांति का ध्यान मढ़े।
समर किन्तु आवश्यक है,
इतिहास भूगोल बचाने को।
@ अंत में आपने युद्ध का समर्थन कर उसकी प्रासंगिकता को बनाए रखा. वास्तव में प्रेरक आख्यान, जिनसे ऊर्जा मिलती है, पढ़ने की बात और शांति के महत्व को मन में धारने [मढने] की बात दोनों को इसी रूप में स्वीकारना चाहिए.
मुझे बेहद पसंद आयी आपकी यह रचना.
सुज्ञ जी ने प्रेरित किया था उत्साहवर्धक औषधि लेने को मतलब आपकी शरण में आने को.
धन्य हुआ.
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प्रतुल जी,
"कुंजर सी गर्जन"
यहाँ वाकई भूल हो गई, ठीक कर लिया है.
आपका एवं सुज्ञ जी का भी बहुत बहुत धन्यवाद.
सही कहा आपने
इतिहास नहीं आख्यान पढ़े,
शांति-शांति का ध्यान मढ़े।
समर किन्तु आवश्यक है,
इतिहास भूगोल बचाने को।
बहुत सुंदर रचना.
baap re!!!!! Sanskrit yaad aa gai yaar..
'समर किन्तु आवश्यक है,
इतिहास भूगोल बचाने को,'
बहुत दिनों बाद इतनी सार्थक और समर्थ कविता पढ़ने को मिली .श्रेयस् के लिए आह्वान स्वरूप एक मनीषी की(ऋषि भी तो मनीषी होते थे) पुकार हेतु आभार !
आपका एक काम मुझे बहुत अच्छा लगता है--नीचे शब्दों के अर्थ देने का(इस बार क्यों नहीं दिए?)
हमारी भाषा अपने शब्द खोकर दरिद्र होती जा रही है ,उनकी जगह जो नए ग्रहण किए जाते हैं वे प्रायः ही महत् और गंभीर अर्थों को अपने में समा नहीं पाते. अर्थ देकर आप एक प्रकार से उन शब्दों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हैं .ऐसे ही प्रयत्नों से अगर दो-दो चार-चार शब्द ही प्रचलन में आने लगें तो हमारी भाषा की संपन्नता बढ़ती रहेगी.
और इसके लिए 'धन्यवाद' कह देना पर्याप्त नहीं है .
आप सभी का बहुत बहुत आभार।
@मो सम कौन जी,
दिनकर जी की यह पंक्तियाँ सूर्य की रश्मि के समान हैं।
मैं कुछ कहने योग्य नहीं इन पर :)
बहुत बहुत धन्यवाद
@प्रतिभा जी,
यथा संभव चेष्टा करूँगा कि आगे से अर्थ देता रहूँ। संभवतः अधिक ही आलसी हूँ। :)
मुझे वापस पथ पर लाने के लिए आपका आभार।
Ojasvi rachna ... bahut kamaal ka likhte hain aap ...
कल अनमना सा बैठा समर शेष है पढ़ रहा था और चर्चा कर रहा था... इस कविता पर बस वही रचना याद आई!! आप लाख कहें, किंतु याद वही आए!गुणी जनों ने इतनी व्याख्या की जिससे लाभांवित हुआ... इतना सामर्थ्य नहीं कि इससे अधिक कह सकूँ..
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
उत्तम संदेश, रचना
देव!
मानस का सामर्थ्य तो अभी इस इन पन्क्तियों को निहारने में ही चुक गया…… पुन:-पुन: आता रहूँगा इस सृजन पर…मोती चुनने के लिये।
दंडवत आपको एवम प्रतुल जी जैसे पाठकों को भी नमन…एक अच्छा पाठक/श्रोता हमेशा सृजन और सर्जक को नवीनतम ऊँचाईयाँ देता रहता है।
सृजन यज्ञ में यूँ ही आहूतियाँ डलती रहें :)
hihi....jitni samajh aayi utni bohot acchi lagi dost. gussa to aata hoga aise comments padhke...ke kaise kaise anpadh log comment karte hain jinhe itna bhi samajh nahin aata :P par kya karein, aapki hindi kisi aur hi level ki hai, ham nahin pahunch sakte ;)
आप सभी का धन्यवाद
यह आवाहन अच्छा लगा , कभी कभी हम जैसो के लिए भी कुछ लिखा करो ...समझने में बहुत समय लग गया :-(
शुभकामनायें !
तुम्हारी रचनाओं को पढ़ कर असीम संतोष मिलता है ...थोड़ा वक्त ज्यादा लगता है समझने में ..पर प्रतुल जी की व्याख्या ने सरलता प्रदान कर दी ...
श्रेष्ठ आह्वान ...
और शब्दों के अर्थ की चाहना रहती है हर बार..
उत्कृष्ट रचना ..
सुन्दर शब्दों की बेहतरीन शैली ।
भावाव्यक्ति का अनूठा अन्दाज ।
बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
बहुत सुंदर .....सशक्त अभिव्यक्ति
दिनकर भी तो बनना होगा .....
नए रक्त का संचार करने में समर्थ ....
ओजस्वी कविता ..
बहुत अच्छी कविता है. बहुत दिनों बाद छंदमयी रचना पढ़ी और वो भी इतनी ओजपूर्ण.
और अब आपका अनुसरण कर रही हूँ.
आप सभी का बहुत बहुत आभार।
@सतीश जी,
यत्न करूँगा कि आगे से अर्थ देता रहूँ, क्लिष्ट शब्दों के।
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