हाशिये पर...



भक्क लाल आँखों में,
जब पसरी हो नींद,
नींद से कोसों दूर,
खार खायी कैकेयी सी|

मैं भींच लेता हूँ,
पसीजी हुई मुठ्ठियाँ|
और फिर अचानक,
देता हूँ उन्हें खोल|

देखता हूँ एकटक,
हलके पसीने से टिमटिमाती,
तीनो लकीरें जो,
धुंधलाती जाती हैं,
ठीक रात जैसी ही|

उठाता हूँ कलम|
घूरता हूँ कागज़|
और फिर अच्छा सा,
एक नाम सोच कर,
खींच देता हूँ हाशिया|

नाम जो,
तुम्हारा भी हो सकता है|
तुम्हारी सोच भी,
तुम्हारे न होने की,
निर्निमेष पीड़ा भी|

लिखता हूँ एक शब्द|
पसंद नहीं आता|
घुमाता हूँ कलम,
उसे काटने को|

वो घिघियाता है,
मेमना? बछडा?
स्कूल नहीं जाने को,
जिद करता बच्चा?
शायद वैसे ही|

आँखों के सूने कोरों से,
कुछ गिर जाता है|
टप्प!!!
तुम्हारा कथित दोष!
मैं मुक्त हुआ,
शब्दहंता अपराध से|

नया कागज़, नए हाशिये,
फिर से वैसे ही शब्द|
माजी के जाले,
कौन सी दीवार,
बदरंग नहीं करते?

शब्द पूरे नहीं पड़ते|
यादों के कमजोर पाल,
नहीं लांघ पाते,
हाशिये पर लिखी,
एक भी नदी|

सुबह तक टोकरी में,
पड़ा है जिस्ते का हर कागज़|
रात कविता नहीं हुई|
यों तुम्हारी कविताएँ हैं,
हाशिये के उस पार|

बुहार देता हूँ|
या कम से कम,
प्रयत्न करता हूँ|
बुहारने का अवशेष,
तुम्हारी स्मृतियों के|

मेरे यत्नों से विमुख,
हर शब्द हुआ|
इन रातों को और,
एक अब्द हुआ|

दीवाली की हर रात,
दीयों बीच चुपचाप|
जलती हैं तुम्हारी,
कविताएँ हाशिये पर|






*अब्द=वर्ष

25 टिप्पणियाँ:

vandana gupta said...

बेहद उम्दा प्रस्तुति।
दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।

अरुण चन्द्र रॉय said...

बेहद उम्दा प्रस्तुति।
दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।

महेन्‍द्र वर्मा said...

नाम जो तुम्हारा भी
हो सकता है
तुम्हारी सोच भी
तुम्हारे न होने की
निर्निमेश पीड़ा भी...

अत्यंत प्रभावशाली कवितां

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं।

nilesh mathur said...

बहुत सुन्दर!
आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामना!

आपका अख्तर खान अकेला said...

aek lekhk aek kvi aek saahitykar ki snvednaa kaa kaala sch uski preshani or dil kaa haal jnaab aapne to jivnt alfaazon men chitrit kr diya yeh kthin kam sirf or sirf aap hi kr skte the jo aapne kr dikhaya mubark ho or duri dipavli bhi mubark ho. akhtar khan akela kota rajsthan

अनामिका की सदायें ...... said...

कुछ और लिखने को बाकी नहीं रह जाता....

जब सब कुछ हाशिए पर ही आ गया तो.

सुंदर अभिव्यक्ति.

निर्मला कपिला said...

नाम जो तुम्हारा भी
हो सकता है
तुम्हारी सोच भी
तुम्हारे न होने की
निर्निमेश पीड़ा भी...
और आखिरी चार पँक्तियाँ दिल को छू गयी। आपको व परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें।

स्वप्निल तिवारी said...

पिछले कुछ वक्त मे तुमने जो कुछ भी लिखा है ..उसमे मैं सबसे ज्यादा स्पष्ट (क्यूंकि शब्द क्लिष्ट नहीं हैं इस बार ,,, :P) तरीके से इसी को समझ पाया हूँ अविनाश ..और बस कई जगह तो बस उछल गया .. अद्भुत हो तुम इस कविता मे ... :)

और हाँ हैप्पी दीवाली ... :)

अरुण अवध said...

सुबह तक टोकरी में ,
पड़ा है जिस्ते का हर कागज़ !
रात कविता नहीं हुई !
ये तुम्हारी कविताएँ हैं ,
हाशिये के उस पार !

बेहद असरदार,हतप्रभ कर देने वाली कविता है यह ,
इस पर कुछ कहने के बजाय इसके साथ जीना बेहतर होगा !
बहुत बधाई !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

शब्द पूरे नहीं पड़ते|
यादों के कमजोर पाल,
नहीं लांघ पाते,
हाशिये पर लिखी,
एक भी नदी|

बहुत पीड़ादायक भाव ....अब्द का क्या अर्थ होता है ?

सुंदरता से भावों को सहेजा है ...

दीपावली की शुभकामनायें

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बिल्कुल भाव विभोर कर देने वाली रचना... ऐसे अनोख ढंग से अभिव्यक्त हुई है कि बरबस कभी वाह निकल जाता है स्वतः मुख से और कभी स्तब्धता छा जाती है दिलो दिमाग़ पर.. अविनाश जी सचमुच अद्भुत है यह कविता!

प्रवीण पाण्डेय said...

कवितायें स्मृतियों का दिया जलाये रखती हैं, दीवाली की तरह किसी के आने की आस में।

Dorothy said...

दिल की गहराईयों को छूने वाली एक खूबसूरत, संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.

इस ज्योति पर्व का उजास
जगमगाता रहे आप में जीवन भर
दीपमालिका की अनगिन पांती
आलोकित करे पथ आपका पल पल
मंगलमय कल्याणकारी हो आगामी वर्ष
सुख समृद्धि शांति उल्लास की
आशीष वृष्टि करे आप पर, आपके प्रियजनों पर

आपको सपरिवार दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.

मनोज कुमार said...

चिरागों से चिरागों में रोशनी भर दो,
हरेक के जीवन में हंसी-ख़ुशी भर दो।
अबके दीवाली पर हो रौशन जहां सारा
प्रेम-सद्भाव से सबकी ज़िन्दगी भर दो॥
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
सादर,
मनोज कुमार

संजय @ मो सम कौन... said...

"दीवाली की हर रात,
दीयों बीच चुपचाप|
जलती हैं तुम्हारी,
कविताएँ हाशिये पर|"
कई बार आया कमेंट करने, हर बार लौटना पड़ा, कुछ सूझता ही नहीं, क्या कहें?
अब तो बीत गई है रात दीवाली की, कितनी कवितायें हाशिये पर होम करीं, है हिसाब?
अवाक कर देते हो अविनाश।
शुभकामनायें..

Avinash Chandra said...

आप सभी का बहुत आभार...

दिगम्बर नासवा said...

मांजी की यादें ... अक्सर लम्बी यादें ... बस जलती रहती हैं हर पल ... हर लम्हे ... बहुत गज़ब का लिखा है ..

Unknown said...

आज पहली बार आपके ब्लॉग की तरफ रुख किया पर कम्व्क्त वक़्त कम पद गया नहीं तो न जाने क्या क्या पढ़ लेता पर इस एक रचना के बाद ही आप को धन्यबाद देने का मन किया तो लिखने बैठ गया

वाकई मजाल है आप का कोई मजाल हो ....बधाई

वर्तिका said...

"shabdon ke kamzor paal nahin laangh paate hashiye ki ek bhi nadi...."

kya kahein avi... bas aankhon ki kor se ek aansu yahan bhi gir gaya...

shabdon ke paal zaraa bhi kamzor nahin lage... bahut hi zyada acchi lagi aaapki yeh rachnaa....

Avinash Chandra said...

धन्यवाद सभी का.
@वर्तिका..बहुत दिन हुए, लिखिए कुछ. आपका आना अच्छा लगा.

प्रतिभा सक्सेना said...

इस काव्य में कथ्य और व्यंजना दोनों स्तरों पर समाविष्ट औदात्य सामान्य भाव-भूमि से ऊपर उठाने की सामर्थ्य रखता है . साधु !

प्रतिभा सक्सेना said...

अविनाश जी ,

मुझे खेद है कि उपरोक्त कमेंट 'उठो आर्य 'के लिए था त्रुटिवश उसके आगेवाली कविता 'हाशिये पर'पोस्ट हो गया.
कृपया ठीक कर लें(मुझे इसकी विधि ज्ञात नहीं है ).
असुविधा के लिए सॉरी !

Avinash Chandra said...

आपका बहुत आभार!
ऐसा होता रहता है, कोई बात नहीं.
आप आयीं, मन से पढ़ा, बहुत बहुत धन्यवाद!

Sudesh Bhatt said...

आपका ब्लॉग पढ़ा मन खुश हो गया , आपके लेखन का कोई जवाब नहीं
धन्यबाद

Avinash Chandra said...

धन्यवाद सुदेश जी