क्षणिकाएं...(धूप)



समय...


कल भी तुम,
धूप ही थी.
मैं था तुम्हारा,
"अपना" बादल,
हम सावन थे.
अब या तुम हो,
या बस मैं हूँ.
उफ़ यह सफ़र,
कार्तिक से जेठ का.


ऐसे ही...

बीते चार दिनों से,
धूप का एक टुकडा,
तक नहीं दिखा.
आज आई भी तो,
कुर्सी निकालते निकालते,
चली गई.
तुम भी तो यूँ ही,
आते थे ना?



गुण...

ताकत से सब,
भले डरें.
स्नेह नहीं,
पर वारें.
धूप जेठ की,
निपट अकेली.
सब अपलक,
शरद निहारें.



अब्बा...

हर तपती धूप में,
अब्बा घनी छाँव हैं.
चलते हैं साथ जहां,
जाते मेरे पाँव हैं.
कड़ी दोपहरी में जब,
परछाई साथ नहीं होती.
वो ही मेरा घर,
कुनबा, बस्ती गाँव हैं.



याद....

कमाल है ना?
तीन साल हुए,
जब तुमने ऐसी,
ही किसी धूप में,
अमरुद खिलाये थे.
बीज अब तक,
दांतों में फंसे हैं.
इन्हें निकालूं तब तो,
तुम्हे भूलूं ना?




सलाम दोस्त....

एक मशाल है,
मेरा दोस्त.
छुपा आसमान के,
एक टुकड़े के पीछे.
बुझ जाता है,
बनने को बादल,
जब तपता हूँ मैं.
और कभी जलता है खुद,
देने मुझे धूप.




माँ......

यक़ीनन उसकी सांस,
दुआ है जो.
रखती है मुझे,
महफूज जिन्दगी की,
अल्ट्रावायलेट किरणों से.
माँ फिर भी,
आक्सीजन ओजोन में,
फर्क नहीं जानती.

मेरी गली...


अच्छा माँ चलता हूँ,
फिर जल्द ही आउंगा.
अपना ख्याल रखना,
दवा वक़्त पर लेना.
व्रत कम रखा करना.
मानोगी तो नहीं पर,
ठन्डे पानी से मत नहाना.
शाम को शाल ले कर ही,
बाहर निकला करना.
फोन करना अम्मा,
मैं भी करता हूँ,
बस वहाँ पंहुचते ही.

बडबडाता हूँ जाने कैसे,
रोकने के लिए आँसू.
जो होते हैं आमादा,
अम्मा के पास रहने को.

नहीं रुकते पर माँ से,
वो गिरा देती है नमक.
चख लेता हूँ उन्ही को,
कुछ कहने को बचता नहीं.

हर कदम कदम पर,
देखता हूँ मुड़ के.
वो भरी भारी आँखें,
वो हिलता हाथ उनका.

उफ़ यह तल्ख़ एहसास,
मुश्किल से चलना मुड़ना.
उस वक़्त वो गली जाने,
कितनी लम्बी लगती है.

गली मुड़ते ही एहसास,
माँ से चिपक जाते हैं.
काश ये गली थोड़ी,
लम्बी हुई होती.

लघुगीत...


मैं शोर मचाता रहता हूँ,
बिलावजह कान खाता रहता हूँ.
तंग करता हूँ तुम्हे,
सर्दी की दोपहर में.
पर सच कहूँ तुमसे?
दावा नहीं करता की,
तुम्हारा मनमीत हूँ.

बनाता हूँ चित्र तुम्हारे,
कहता हूँ बेढब से गीत.
मीन-मेख तुम्हारे,
कपड़ों के रंगों में.
पर यकीन मानो मेरा,
दावा नहीं करता,
तुम्हारा जीवन संगीत हूँ.

ऐसा नहीं की लगाव,
कम है मुझे तुमसे जरा भी.
यों तुम गीता हो मेरी,
पर मुझे आकाँक्षा नहीं.
पर कभी उदास हो,
तो गुनगुना लेना.
मैं लघुगीत हूँ.


स्मरण मुझे मत रखना,
नहीं हूँ कोई मैं राजा.
मेरी हार-जीत या क्षय से,
किसे फर्क पड़ने वाला.

सौ घट-गुम्बद, कोट तमाम,
गज शिख बैठे राजा की शान.
मैं हूँ सिपाही धूल का,धूल में,
जीत के भी मिलने वाला.

गर्त से खींचा,रक्त से सींचा,
शमशीर,गदा, बल मंजूषा.
अग्निबाण नहीं था केवल,
हाथ में था बरछा भाला.

स्वर्ण का कुंडल नहीं था मेरा,
लोहे की तलवार थी बस.
खून बहाया मैंने अपना,
कवि ने राजन राजन लिख डाला.

अनुरोध नियति से.....


मोड़ लेने दो मुझे,
धोती तनिक अपनी.
उतर लूँ जरा,
घुटनों तक गंगा में.

भर लेने दो अंजुल,
गंगाजल से मुझे.
देने दो फिर अर्घ्य,
आज दिवाकर को.

करने दो आचमन,
लेकर रुद्राक्ष हाथ में.
तुलसी कोट की,
परिक्रमा लगाने दो.

बजा लेने दो फिर,
आज मुझे शंख.
टेकने दो मत्था,
नंदी-कार्तिकेय को.

गणपति की सूँड,
आँखों से लगाने दो.
एडियाँ उठा कर,
घंटियाँ बजाने दो.

करने दो प्रज्ज्वलित,
सहस्त्र दीपों की आरती.
मुझे इन पावन,
सीढीयों पर आने दो.

देखने तो संध्या अरुण को,
भागीरथी में मोक्ष पाते.
तनिक यह शांतनु,
मुझे कंठ लगाने दो.

शिवालों घडियालों में,
रहने दो मुझे.
मोक्ष ना दो फिर,
मुझे काशी जाने दो.


रंग बसा करते,
हैं नयन में,
नेत्र अलग अलबेले.

ज्योति रवि की,
वही रहे है,
नयन ह्रदय बस खेले.

किसी को सुन्दर,
किसी को क्रंदन,
इस दुनिया के मेले.

अक्ल चेतना,
अनुभव मिमांसा,
और विषय का ज्ञान.

रंग दिखाए,
सही मनुज को,
दे सटीक अनुमान.

क्रोध दंभ हो,
हावी तो सब,
रंग श्वेत और श्याम.

नहीं विवेक की,
शक्ति जिसमे,
मनुज नहीं वह श्वान.

बरमुडा ट्राईएंगल


वो जो धीरे से,
आ जाते थे तुम.
पीछे से पलक ढाँपने,
अब क्यूँ नहीं आते.

वो जो कहा करते थे,
बातें अपने दोस्तों की.
जिनके नाम तक नहीं जानती,
अब क्यूँ नहीं सुनाते.

सब कुछ ही तो ठीक था,
यों ठीक अब भी है.
पर मैं भी ठीक हूँ,
ये पूछ क्यूँ नहीं जाते.

कैसे बुनती हूँ मैं फूल,
फिरनी बनाने की विधि में,
अब भी पारंगत नहीं मैं,
पर क्यूँ छेड़ नहीं जाते.

कभी मैं ही थाम लूँ,
तुम्हे देखने भर को दो पल.
"काब वेब में उलझा हूँ "
कह के ठहर नहीं पाते.

पहले तो न था ये,
"काब वेब" इतना जटिल.
कह ही डालो मुझे "काब",
सच क्यूँ कह नहीं जाते.

चलो अब मैं निकलती हूँ,
तुम्हारी यादें डूबोने को.
कहीं तो मिल ही जाएगा,
मुझे भी बरमुडा ट्राईएंगल.

ऊँचाई....


अम्मा जानती हो,
आज शहर की,
सबसे ऊँची इमारत,
की छत पर खडा,
लिख रहा हूँ.

कोई दो-तीन सौ,
फीट ऊँची है.
चींटी जैसे है,
सब लोग सामान,
नीचे सड़क पर.

लेकिन माँ पता है,
इतनी ऊँचाई से,
डर नहीं लगता है.
बल्कि ऊँचाई महसूस,
तक नहीं होती.

बचपन में अपने,
घुटनों मुझे उठा,
जाने कितने ही,
आसमान दिखाए,
तुमने अम्मा.

बच्चा था अम्मा,
बस खिलखिला भर,
देता था मन मेरा.
तेरे साथ डर तब भी,
नहीं लगा कभी.

अच्छा अम्मा अब,
इतनी ऊपर हूँ तो,
कह लूँ जरा,
खुदा को शुक्रिया,
खुदा के लिए.


खुद से खुद निकाल,
जाने कैसे दिया,
होगा उसने मुझे.
हाँ माँ मेरा खुदा,
तुम ही तो हो.

शौर्य......


हूँ आर्य नहीं,
ना पुरु हूँ मैं.
ना शुक्र कोई,
ना गुरु हूँ मैं.

ना राजन कोई,
विलासी हूँ.
घनघोर ना घट,
सन्यासी हूँ.

मैं रागों का,
आकार नहीं.
ना गीतों का,
अभिलाषी हूँ.

ना शम्भू सम,
हैं तीन नयन.
ना शेष शयन,
निवासी हूँ.

अली गुंजन का,
मद्धिम शोर नहीं.
कोई फागुन की,
भीनी भोर नहीं.

ना रिमझिम रिमझिम,
बरखा हूँ.
ना मथुरा हूँ,
ना काशी हूँ.

हूँ प्रखर नाद,
मैं तुरही का.
अश्वों की टाप,
का साथी हूँ.

नेपथ्य से आया,
योद्धा हूँ.
रणभूमि का अचल,
निवासी हूँ.

सातों सुर मेरे,
बाण ही हैं.
टंकार राग,
अभिलाषी हूँ.

जेठों के जलते,
झाड में हूँ.
मैं शीत में हूँ,
और बाढ़ में हूँ.

हूँ क्रंदन में,
नीरवता में.
फट कर गिरते,
आषाढ़ में हूँ.

हूँ क्रोधी एक,
छलावा हूँ.
मृत्यु को यम,
का बुलावा हूँ.

हूँ विजय भी मैं,
और विजय का पथ.
साहस हूँ मैं,
अविनाशी हूँ.


रात की बातें,
चाँद के हाथों.
अम्बर ने,
भिजवाई थी.

सुबह सूर्य ने,
बातें वापस.
नभ पर ही,
छितराई थी.

चाँद की बोरी,
सूर्य की बोरी.
क्षितिज ने कहीं,
धुलाई थी.

मेरा क्या है,
सब है व्योम का.
मेरी तो तनिक,
लिखाई थी.

स्याही घोली,
जिस पानी में.
वो उसी ताल,
से आई थी.

सन्देश.....


मंदिर के जीने,
की कतारें.
मस्जिद की,
सीढ़ी सी हैं.

रजिया है,
मेरी मुनिया सी.
कैफ की बात,
जिगरी सी है.

मेरे अब्बा,
अकरम के पिताजी.
एक ही शेविंग,
क्रीम लगाते हैं.

रुकुह अता करते,
हैं राम को.
मौला को शीश,
नवाते हैं.

अरुणा आपा,
नर्गिस दीदी.
दोनों का कालेज,
एक ही है.

चार साल से,
बी ए में हैं.
दोनों का नालेज,
एक ही है.

मेरी अम्मी,
सलमा मौसी.
दोनों की रसोई,
जलवा है.

यहाँ पकौडे,
छाने माँ ने.
मौसी ने बनाया,
हलवा है.

मुसलमान का,
मतलब क्या है.
और हिन्दू का,
धर्म है क्या.

इनबातों में,
क्या रक्खा है.
बेफजूल का,
मर्म है क्या.

अश्क चार जब,
मिलें अश्रु को.
आनंद हाथ दे,
जिस रोज लुत्फ़ को.

वो इक पल है,
सौ युग जैसा.
वरना सदियों,
जीवन क्या है.

सुर....


जब सभी वाध्य,
हों यथास्थान.
सुगन्धित इत्र हो,
वायु में घुली.
सुख चारण बन,
पंखा झलें.
रसित ग्रीवा के,
हों मधुर गान.
उन्मादों का,
नाद हो जो.
रति काम का,
थाप हो जो.
मीठी सी जब,
शहनाई हो.
बहती हलकी,
पुरवाई हो.
कुछ धीरे से,
अम्बर छलके.
और पुष्प हिलें,
हलके हलके.
ऐसे सुर प्रभु,
मुझे मत दो.

ये रुधिरों में,
जम जाएँगे.
मेरी ही त्वचा,
को खाएँगे.
जो देना हो,
तो आतप दो.
पछुआ लू की,
सन्नाहट दो.
टनकारें नाम,
करो मेरे.
घनघोर घटा,
गडगडाहट दो.

अरुणाई का,
शंखनाद दो.
संध्या की मुझे,
दुन्दुभी भी दो.
बैलों के गले,
की टन-टन दो.
कभी रंहट की,
खड़-खड़ दो.
घप्प घप्प ,
कुदालों की.
मुझे स्वेद की,
टप-टप दो.

ऐसा सुर मत,
देना मुझको.
जो पौरुष से,
बिलकुल रीता हो.
सुर ऐसा दो,
बन रक्त बहे.
हो महाबली,
पर मीठा हो.

पत्र विन्ध्य को....


महसूस ही नहीं होता,
तुम्हारा होना ना होना.
पठार तक भी तो,
नहीं बचा है तुम्हारा.

सपाट गांगेय मैदानों से,
तनिक ही कठोर हो.
फिर भी गेंहू ना सही,
वृक्ष सानिध्य में हो तुम.

सच ही तो बस,
ऊपर से ही कठोर थे तुम.
पहले भी जब तुमने,
उंचा उठने की हठ की थी.

कितनी सुघढ़ थे तुम,
अकेले दम पर खड़े.
तुम्हे कब चाहिए थी,
श्रृंखलाएं मेरी तरह.

बालक था मैं भैया,
अब समझ पाता हूँ.
जब तुम उठने लगे थे,
सूर्य से भी ऊपर.
वह दंभ-हठ नहीं था,
जम्बुद्वीप बचाया था तुमने.

यों तो ना जा पाता,
मैं तुमसे ऊपर कभी.
तो तुमने ही रचा,
आगमन अगस्त्य का.

तोड़ सकते थे तुम,
वचन अपना किसी क्षण.
परन्तु मनीषियों के देश को,
बचाए रखा तुमने वक्ष पर.

काश तुम उठते भाई,
अगस्त्य वापस ना आयेंगे.
परन्तु नहीं कहूंगा,
तुमसे तोड़ने को मर्यादा.

झुक के चरण छू लूँ,
इतना सामर्थ्य भी नहीं.
समर्पित करता हूँ अश्रु,
चरणों में मानसून भेजा है.

.........आपका अनुज, हिमालय

दो विदा...

अब मत पकडो पतवार मेरी,
धारा को ऊपर आने दो.
अंजुरी से नदी घटेगी नहीं,
मुझको अब डूब ही जाने दो.

मैं नहीं दोष तुमको देता,
ना रोष नियति पर खाता हूँ.
किन्तु अनचाहा गीत सही,
जो बजता है बज जाने दो.

ऐसा तो नहीं की कहा नहीं,
तुमने जो कहा वो सुना नहीं.
किन्तु वायु ही घाती थी,
तो मुझे घात यह खाने दो.

समझो ना है संदेह मुझे,
होने का तुम्हारा अग्निशिखा.
लेकिन मैं कोई दीप नहीं,
हूँ शलभ, भस्म हो जाने दो.

ना रक्त तेरा न रक्तिम हूँ,
ना की मैं धरा पर अंतिम हूँ.
मिल जायेंगे सौ मीत नए,
तेरी अप्रतिम प्रीत को पाने को.

अब अम्बर अम्बुज कहो नहीं,
मुझे सूर्य-ध्रुव का नाम न दो.
ज्योति से पीडा होती है,
मुझे तिमिर में अब घुल जाने दो.

जो कही नहीं तुमने मुझसे,
या कही तो मैंने सुनी नहीं.
ऐसी बातों में क्या रखा,
उन्हें अंतः में सो जाने दो.

यायावर हूँ अज्ञानी हूँ,
अक्खड़ हूँ तनिक अभिमानी हूँ.
अब त्याग कहो या कहो अहं,
मुझे फिर से पथिक हो जाने दो.

मुझे कहे सोना, चाँदी,
राजा बेटा, फूल.
हीरा, मोती, पन्ना,
समझ नहीं पाती है.

जाने कितने दिनों से,
सोच कर रखी.
सहेजी बताने को,
अनजानी बातें अनकही.

जब बैठती है,
जुगाड़ सब लिखने.
दवात कागज़ कलम में,
चेहरा मेरा ही पाती है.

देती है भर भर,
सात आसमान दुआएँ.
लेती है अपने पूरे,
आँचल में बलाएँ.

बात क्या थी,
लिखने बताने को.
सोचना तक भी,
भूल जाती है.

बाबूजी ही मुझे,
लिखा करते हैं चिट्ठियाँ.
छुटके के नखरे,
अम्मा की बतियाँ.

माँ को कागज़,
पूरा नहीं पड़ता.
आँचल पे लिख के,
मेरा आसमान बनाती है.

तुम्हारी कीलें...

बीती बारिश छू कर,
मेरी अँगुलियों को,
जाने कैसा कैसा,
कर दिया था मन.

अंतस तक उतर,
गए थे तुम.
बना लिया था,
घर वहाँ तुमने.

बड़े ठाठ से,
रोज धडकनों पर.
चढ़ कर उतर कर,
आते थे तुम.

और दिन में मैं,
सहेजती थी,
खुशबू तुम्हारी,
आत्मा के आस पास.

ना रहे सुध और,
तकलीफ हो तुम्हे.
बिना साँसों के,
चढ़ने हिय तक.

अपलक कई शामे,
काटी मैंने सावन में.
यकीं मानो फुहार बहार,
सबसे बेखबर.

तुम्हे पलकों से,
आँखों में उतार.
फिर करीने से,
दिल में रखना.

बड़ा पुरसुकून था,
ये सब कुछ ही तो.
तुम भी हमेशा,
खुश ही दिखते थे.

जाने क्यूँ फिर,
उस रोज तुम.
लाये खरीद कुछ,
कीलें संदेह की.

कह देते मुझसे,
रोक के साँसे अपनी,
मैं तान देती नसें,
तुम्हारी अलगनी को.

पर तुमने मर्म को,
एक एक कर,
बेध दिया न,
बिना परवाह किये.

जाना था तो,
चले जाते चुपचाप.
क्या जरुरत थी,
बेध के जाने की.

देखो ना सर्दी में भी,
मैंने दस्ताने नहीं पहने.
शायद आसमान छलके,
शायद तुम आओ...
फिर अंगुलियाँ छूने...