खींच के देना एक,
अल्लटप्प मेरे सर पर.
और भाग जाना,
कूद के जंगले से.
कितने पग्गल हो,
घोंचू चिल्लर तुम.
निपोर देना खें-खें,
अट्ठाईसी अपनी.
बनाना जोड़ी मेरी,
हर झोल-छबीली से.
रखना खुद के लिए,
सलोना राजकुमार.
नोच देना पोस्टर,
द्रविड़-नागराज के.
चुरा लेना बबलगम,
हाजमोला गोली छोड़ के.
उतरवाना खीर मुझसे,
छींके पर चढा.
नींद में मुझे लगाना,
नेलपॉलिश पैरों में.
तेरी बतियों का जो,
झब लगता था.
सच रे छुटकी,
रब लगता था.
आँगन आज,
उदास पडा है.
जो तेरी दमक,
रोशन लगता था.
बड़ा अच्छा लगता है,
आना चुपके से हर रात.
तोड़ देना दो बाल,
तुम्हारी पलकों के कोने से.
घुस जाना बंद आँखों में,
तुम्हारी बेआवाज ही.
बैठना ज़रा देर तक,
तुम्हारी आँखों के जजीरे पर.
अरे सुस्ताने का हक़,
मुझे भी है आखिर.
फिर चोरी से नहाना,
आंसू की उस एक बूँद में.
जो मेरी कसम पर,
तुमने लुढ़काई नहीं.
खेलना तुम्हारी बातों से,
तुम्हारे ही सपनों में.
पी लेना मीठी सी,
हंसी तुम्हारी लाबाबदार.
उफ़ सुबह होते ही,
जाग जाओगी तुम.
और मेरा नहीं होना बन जाएगा,
तुम्हारे आँखों की किरचन.
पर घबराओ मत तुम,
वो दो बाल हैं ना?
जो तोडे थे रात मैंने,
पलकों से तुम्हारी.
उन्हें हाथ में लो,
रात मांग लो एक बाल से.
और दूजे से रात में मुझको,
मैं फिर आउंगा......
भूल गया था ज़रा,
मैना का चहकना क्या है।
याद धुंधला गयी थी,
फूलों का महकना क्या है।
कैसी होती है कल-कल,
अमराई के ट्यूबवेल पर।
महुआ से महक कर,
पुरवाई का ठरकना क्या है।
क्या है पतली सी एक,
पगडण्डी पर सरपट जाना।
टिकोरों के कच्चे रस से,
होठों का जलना क्या है।
कैसे आ जाते हैं रक्ष,
सात सिरों वाले बार बार।
और नानी की कहानी में,
वीर राजा बनना क्या है।
गईया के दुहने से ले कर,
दूध की दही रबड़ी तक।
फोड़ सारे लड्डू मोतीचूर,
सच्चे मोती ढूँढना क्या है।
गनीमत है अब तक,
सुबह उठने की आदत बची है।
तुम भी मिल जाते हो,
हर रोज़ बिना नागा किये।
और मैं देख लेता हूँ,
तुम्हारे रोशन आईने में।
सच्ची हंसी के मायने और,
सुकून से रोना क्या है।
इन सड़कों पर भागते,
देर रात सोती भीड़ से।
एक सा खाते रोजाना,
सुबह शाम छिड़कते डियो।
ऐसी जिन्दगी से मुझे,
बचाने का शुक्रिया कहूँ।
या करूँ सजदा तुम्हे।
लोगे तो तुम दोनों ही नहीं..............दोस्त...
अम्मा की याद....
जब ब्लेड से नाखून काटते,
अंगुलियाँ कट जाती हैं।
जब नहीं छूटता दाग कालर का,
ख़त्म हो जाता है नमक,
उबलती दाल के बीच में।
जल जाती है चौथी भी रोटी,
सिर्फ तब ही नहीं,
अम्मा हर पल याद आती हैं।
अम्मा के नखरे....
कभी शंकर कभी,
चावल के कंकर।
अम्मा यूँ बेवजह,
भड़क जाती है।
उस दिन खीर-दलिया,
ही थाली में आती है।
ये वो दिन होते हैं,
जब नमक होता है,
दाल में ज्यादा या फिर,
सब्जी ज़रा जल जाती है।
अम्मा का प्यार....
मैंने पूछा जब अम्मा से,
इतना प्यार कहाँ से लाई?
अम्मा बोली चल रहने दे,
मुझे पर हल्का सा मुस्काईं।
लगा हैं जैसे अम्मा सागर,
और लहर मीठी टकराई।
सागर कहाँ गिना करता है,
कौन नदी कितना जल लाई?
अम्मा का घर.......
पिता पूज्य हैं,
तेज है भाई।
मेरी मईया,
गीता है।
ये सौभाग्य,
मेरे मानस का।
हर क्षण में,
कल्पों जीता है।
अम्मा का फैशन....
धमका के पापा को,
दे के हवाला होली का।
नाम ले के टूटी पायल का,
दिखा के चटकी चूडियाँ चार।
अम्मा ने फिर मुझे बुलाया,
और तनक के चली बाज़ार।
आ चल रे मुन्ना तेरे लिए,
नए जूते खरीद लायें।
अम्मा की आदत....
ये लाल, ये पीली,
हाँ काली वाली और,
हाँ वो बैंगनी सफ़ेद।
अरे वो केसरिया भी,
सबमे से एक एक दे दो।
माँ आज भी मेरी खातिर,
हर ताबीज खरीदती है।
अम्मा की रामायण........
घना जब जब,
होता है अँधेरा।
आती हैं बड़ी मुश्किलें।
माँ बन जाती हैं बालि।
और प्रभु श्रीराम तक,
माँ से डरते हैं।
अम्मा का गुस्सा..........
" आज खेलने गया तो,
टांगें वापस मत लाना।
वहीँ बैठ के जपना जंतर,
खाना भी नहीं मिलेगा।"
खूब पता है तेरा अम्मा,
भूखा बेटा कहाँ रहेगा।
आज रोटियाँ नहीं मिलेंगी,
गुस्से का घी पुए तलेगा.....
तुम तो जीवनदात्री धरा थी,
मैंने चाहा तुमको पाना।
लेकिन जो है विहग प्रवासी,
उस पर कैसे रोक लगाना।
हुई आकांक्षा कटु सी मन में,
तुमको है नीचा दिखलाना।
बिन स्पंदन जो गीत लिखा तो,
देखो मैं पाषाण बन गया।
कितने कोपल भग्न हुए पर,
तुमने हर क्षण नीड़ सजाया।
तिनके मेरे खिड़की दरवाजे,
आँसू का तुमने जोड़ लगाया।
मैं इतराया, हद पगलाया,
तुमको तुमसे किया पराया।
अब तिनके छूता हूँ तो देखो,
हर तिनका ही बाण बन गया।
तुम्ही छवि थी, तुम थी छाया,
चन्दन तरु की कोमल काया।
कोयल जैसी पराग वाणी,
हंसी महा-माया की माया।
क्यूँ न प्रणय समझ सका मन,
प्रेम के बदले क्षोभ थमाया।
आग लगाई जो तुमको तो,
ह्रदय मेरा श्मशान बन गया।
युग गीतों के कितने चर्चे,
एक कहानी सौ सौ पर्चे।
ह्रदय से हैं मैंने चपटाये,
कभी ना तुमको गले लगाया।
काश के पढता नयन तुम्हारे,
जिनको कल्पों बहुत रुलाया।
आज मेरी आँखों का पानी,
आँखों से अनजान बन गया।
बिन स्पंदन जो गीत लिखा तो,
देखो मैं पाषाण बन गया।
रात तलक थी सीलन बदबू,
और गज़ब की बारिश थी.
आज सुबह की बात अलग है,
धूप धमक धड़क कर आई है.
भक्क झोंक दी सारी की सारी,
लकडियाँ चूल्हे में शायद.
अम्मा को लगता है मेरी,
याद बहुत फिर आई है.
अंगुलियाँ थिरक उठी करने,
आज फिर से टक्क-टनक.
मेरे बैगनी कंचों से शायद,
माँ ने फिर धूल हटाई है.
चुस्त सी थी पतलून मेरी जो,
फिर से कमर पर आई है.
यादों के धागों से की,
अम्मा ने आज सिलाई है.
रोशन मानस अधिक हुआ,
अंतस अधिक सुवासित है.
अगरबत्तियां ख़त्म हुई,
माँ ने बाती-धूप जलाई है.
नहीं बनायी रोटी मैंने,
सेंके आज पराठे हैं.
आज पराठों से आलू के,
खुशबू मेथी की आई है.
अम्मा को लगता है मेरी,
याद बहुत फिर आई है.
कुछ आषाढो पहले तक जो,
नयन तुम्हारी ज्योति थी.
बीते अगणित वारों से,
अब आँखों की किरचन है.
देवदार के पत्तों से ,
मैंने रात जलाई है.
तुमको दिन के उजालों में,
जाने कैसी अड़चन है.
गुलमर्ग के दर्रे पर,
नहीं उतरती थी चाँदनी.
अब उसके भी आने पर,
बर्फ में कैसी तड़पन है.
गीत तुम्हारे बहते थे,
झेलम और चेनाबों में.
इनाबों की कलकल भी,
अब तो टूटी धड़कन है.
तीन गिलहरी एक बटेर,
ह्रदय तुम्हारी बतियाँ ढेर.
बातें अब भी बाकी हैं पर,
नहीं कानों में कम्पन है.
तुमको कभी छुपाने को,
काली रात का सजदा था.
आज बोरसी हाथों में,
दिखता नहीं मेरा तन है.
मैं कह दूँ या तुम सुन लो,
पहले तो दोनों ना थे.
अब तो शायद दोनों हैं,
नहीं मगर मीठापन है.
अलबेले से फूल जो कुछ,
तुमने बुने थे चादर पर.
लिपटे हैं जैसे के कफ़न,
बस इनको अपनापन है.
ये जो दिखता है ना,
सच नहीं केवल इतना ही।
धरती के उस पार भी,
रहता है एक चाँद।
अरे नहीं अग्रज-अनुज,
आश्चर्य ना करो।
ना सिकोडो भौहें अपनी,
सँझा के पारिजात सी।
हाँ चांदनी एक ही है,
निश-दिन अम्बर पर।
दौड़ती रहती सरपट,
फैली बेचारी चंहुओर है।
दिवस में दो बार,
लांघती है धरा को।
पूर्ण करने धर्म अपना,
दोनों ही शिशिरों के प्रति।
एक दिन भी छुट्टी ले तो,
चांदनी पर लान्छन लगा है।
ना हमारा असफल चाँद,
ना अमावास ही अधम हुआ है।
नहीं नहीं अभी तक मैं ,
मानसिक रोगी नहीं हुआ।
ना ही आपके भौतिक,
विज्ञान के विपक्ष में खडा हूँ।
किन्तु कभी किरण कभी चांदनी,
सूर्य की बेटी को बस काम हैं।
आग उगलता दिनकर और,
पत्थर चंद्रदेव पूज्य-महान हैं।
प्रश्न इतना है मेरा चल-अचल से,
क्यूँ यूँ दोमुहे आयाम हैं?
ऐसा तो नहीं चाँदनी नारी,
सूर्य चन्द्र अमावास पुरुष नाम हैं?
हिमालय की तराई,
लद्दाख के किसी दर्रे से।
माँ ने किसी सर्दी में,
मंगाए थे किसी से,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
बिंधे नहीं थे,
ताजे थे ना एकदम।
मानो शम्भू ने कैलाश पर,
स्वयं ही दिए हों,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
कील नहीं लगवाती माँ,
लोहा-तेल-शनि खूब,
मानती हैं माँ।
छिदवाती कैसे कील से,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
सात महीने- पापा कहते हैं,
माँ ने कुछ नहीं खर्चा।
बनवाने चांदी की कील।
छिदवाए शिवरात्री पर,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
तब से आज तक माँ को,
यकीन है महादेव पर।
शंकर को भी यकीनन होगा,
माँ ने जो उनके नाम लिए।
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
शिव का तो नहीं पता मुझे पर,
गंगा स्नान रोज हो जाता है।
जब पानी गुजरता है होकर इनसे,
और लहराते हैं ग्रीवा पर मेरी,
बीज कुछ रुद्राक्ष के.
मेरी नाल जुडी थी इनसे,
दूध से सींचा कभी लहू से।
बहुत ही प्रिय हैं हिय को मेरे,
अधम मैं लेकिन नहीं सहूंगी।
मैंने तो तुलसी बांटी थी,
व्रत में दी घी की बाती थी।
जप भी मेरा खली हुआ तो,
पापी रब को नहीं कहूँगी।
हाँ मन दुखी द्रवित तो होगा,
क्षण दो क्षण को भ्रमित भी होगा।
आग लगा दूँगी ममता को लेकिन,
पल पल अब मैं नहीं मरूंगी।
संस्कारों का पाप लगे जो,
मान के गलती मैं सर लूँगी।
किन्तु किसी भी सूर्यस्थिति में,
पक्ष मैं उनके नहीं रहूंगी।
तुम सा पाप ना मुझसे होगा,
भले हृदयविहिना नाम सहूंगी।
तुम धृतराष्ट्र भले बन जाओ,
मैं गाँधारी नहीं बनूँगी.