कितना टेरता हूँ खटराग,
एक ही, एक सा, अनुदिन!
आलोड़ित इतिवृत्तों में,
कोंचता रहता हूँ,
प्रत्येक निःसृत विषण्णता।
निस्पृह होने-दिखने की,
निस्सीम स्पृहा दबाये अंतस में,
कूटता रहता हूँ विवोध।
फेंटता रहता हूँ आसव,
सुदूर प्रांतर से लाये,
स्निग्ध मृदुल पुष्पों का।
लिख देना चाहता हूँ उनसे,
अपने गढ़े संतोषी आख्यान।
असफलता को द्युतिसूत्र बता,
यत्न करता हूँ ठठाने का।
यह अहेतुक केलि देख,
अब तक शांति से मुस्काता,
चिर तेजस्वी बिल्व किसलय,
आज चंद्रमौलि हो जाता है।
कभी निष्कंप मैं भी,
चुपचाप झड सकूँ तो....
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इतिवृत्त= इतिहास/वृत्तांत
आलोड़ित= सोचा विचारा हुआ
आसव= फूलों का रस/मधु
विवोध= धीरज
द्युति= चमक
अहेतुक= अकारण
चंद्रमौलि= शिव
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इतिवृत्त= इतिहास/वृत्तांत
आलोड़ित= सोचा विचारा हुआ
आसव= फूलों का रस/मधु
विवोध= धीरज
द्युति= चमक
अहेतुक= अकारण
चंद्रमौलि= शिव
20 टिप्पणियाँ:
स्मित सी आनन्दमयी रेख खिंच जाती है, एक सन्तोष प्रस्फुट हो जाता है क्षितिज पर।
Very good poem
विवोध = .......
आज कठिन शब्दों के अर्थ नहीं लिखे। भाई या तो साथ में सरलार्थ लिखा करो नहीं तो हिन्दी में लिखा करो:)) सही अर्थ न मालूम हो तो अंदाजे अल्गाने पड़ते हैं और हमेशा तुक्के भी नहीं लगते अपने से।
शेष सब बहुत अच्छा है, स्निग्ध भी ओजस्वी भी।
धीर-गंभीर, ऊंचे ख्याल - परिचय यही है तुम्हारा।
महाशिवरात्रि की बिलंबित लेकिन लेट फ़ीस सहित शुभकामनायें।
बहुत सुन्दर अभिब्यक्ति| धन्यवाद|
बहुत सुन्दर अभिब्यक्ति| धन्यवाद|
कभी निष्कंप मैं भी,
चुपचाप झड़ सकूँ तो....
..बहुत सुंदर।
कभी निष्कंप मैं भी
चुपचाप पढ़ सकूँ तो...!
बड़ी विलम्बित प्रस्तुति है जाह्नवीशेखर के लिये!एक अद्भुत कामना!!
कभी निष्कंप मैं भी झड सकूँ तो ...
सुन्दर !
यह अहेतुक केलि देख,
अब तक शांति से मुस्काता,
चिर तेजस्वी बिल्व किसलय,
आज चंद्रमौलि हो जाता है।
बहुत ही सुंदर शिवरात्रि को चंद्रमौलि, बहुत खूब.
सुन्दर अभिब्यक्ति ... हमेशा की तरह लाजवाब लिखा है ...
इस भाषा की तो आदत ही नहीं रही अब.
देव… !
हमें भी नवाज़ दें निष्कंप चुपचाप झड़ सकने के हुनर से॥
शेष कुछ कह सकने का समर्थ्य नहीं होता आपको,मेरे शब्दों में।
कभी निष्कंप मैं भी,
चुपचाप झड़ सकूँ तो...
सुन्दर भाव....
अविनाश जी आपकी रचनायें तो बस नमन योग्य होती हैं ....
अद्भित और बेमिसाल .....
कोई रब्ब की अनोखी दें हैं आप ......
जितनी सरस उतनी ही सार गर्भित!
विस्मित हो जाती हूँ प्रायः चमत्कृत-सी, आप कहाँ से क्या प्रतिपादित कर देते हैं . कोई गहन तत्व उद्घाटित हो जाता है .
जैसे औघड़ शिव के विरूप में सृष्टि का महत् संदेश निरूपित - काव्य में भी शब्द और अर्थ की संगति में कितने व्यंग्यार्थ संग्रथित रहते हैं !
कविता सुन्दर है, भाषा यदि जरा सा आसान रहे तो समझने के लिए मुझ जैसों को आसानी रहेगी.
वैसे यही भाषा तो आपकी USP है :)
आपकी रचना का आस्वादन हमारी उपलब्धि हुआ करती है...और क्या कहूँ...
बहुत सुन्दर!
बहुत दिनों से पढ रही हूँ आपको...समझने की कोशिश करती रहती हूँ...आज डरते-डरते पॉडकास्ट बनाने की हिम्मत जुटा पाई हूँ,(गलतियाँ हो सकती है) कॉपी राईट है आपका ...आपको सुनवाना चाहती हूँ(उच्चारण भी सुधारना है)...पर कैसे ? कोई उपाय?..
आप सभी का अनेकानेक आभार!
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