कितने दिन बाद माँ!!
कितने दिन बाद,
देखा है यह प्रात।
कौन सी दिशा से नभ,
देता है असीस में,
ऐसी अपरिसीम हर्षिल प्रभाएँ?
हुलस उठता है माँ,
मन का तुरंग,
जैसे देख झुरमुट,
सुथराई से धुले काँसों के।
सौष्ठव प्रदर्शित करते हैं,
हवा से जूझ सुदूर, उस पार,
गेहूं के बौराए पौधे,
धरे वेष्टित स्वप्न।
कब देखा था पिछली बार,
सरसों से अनुस्यूत,
अरहर को लहकते-बहकते?
माँ! बया अब भी है,
बल्कि लाई है दो पड़ोसिनें भी।
रसाल-महुआ-दाड़िम पर,
बसा लिए हैं नीड़ सबने,
झाड़-झकोर-पछोर।
मुकुलित सरसों की किंकिणियाँ माँ!!
माँ अब भी उन्हें,
लाड से देखो वैसे ही,
हिलाती है बासंती-फागुनी।
कैसा सुख है माँ,
कृमियों से जोती मृदा पर,
तलवे ठहराने का?
कौन सा मधुरिम धवल,
तोय उमड़ा आता है,
धोने मन-कण-क्षण।
झर रहे हैं पात माँ,
स्वर्णिम भूरे गाछ से।
मानों किसलयों की कोई सरि,
उमड़ती हो करने गाढ़ालिंगन,
दूब की वत्सल क्रीक से।
कैसा अनहद है माँ,
गूँजता है निसर्ग से, चंहुओर से।
प्रेम की कैसी मलयज पवन,
बहती रहती है हर क्षण,
तुम्हारी ही ओर से।
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वेष्टित= ढका हुआ, वस्त्र धारण किया हुआ
अनुस्यूत= गूँथा हुआ
रसाल= आम
दाड़िम= अनार
किंकिणियाँ= घुंघरू
मुकुलित= कलियों से युक्त
तोय= पानी
क्रीक= खाड़ी
20 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन शब्द सामर्थ्य युक्त इस रचना के लिए आभार !!
प्रभात का मन मुग्ध कर लेने वाला वर्णन।
बहुत सुन्दर शब्द चित्र ...आज कल घर गए हुए हो ?
बहुत ही खूबसूरत भाव लिए है ये
शब्दों का चयन लाजवाब.
उत्तम भाव, उत्कृष्ट भाषा। गंगा-जमुना तीर का अहसास!
[कवितायें कम ही पढता हूँ, लेकिन तुम्हारी कविताओं पर नज़र रखनी पडेगी!]
waah dost....kitna khoobsurat chitr hai....bohot maza aaya padhkar....aur khaaskar in sab nazaaron ko pee kar, maa ko sunaana...unique style....beautiful
behad sundar rachna...........
परदेसी पहुंच गये घर या पहुंचने वाले हैं?
हृदय की शब्द-गंगा सदानीरा है, स्पष्ट है। शब्द-संयोजन और भाव हमेशा की तरह तन मन को लहलहा गये।
हैरान हूँ ये ऊपर लिखी पंक्ति मैंने लिख डाली? :))
शुभकामनायें।
भूले बिछड़े शब्दों का मधुर भावुक संपर्क पुनः प्राप्त हो जाता है आपके ब्लॉग पर आते ही....
कवितायें तो असंख्य लोग लिखते हैं परन्तु, आप जैसी कृति दुर्लभ है आज के समय में और वह भी हिन्दी ब्लॉग जगत में...
ह्रदय से आभार ,इस अप्रतिम रचना के लिए...
अविनाश जी!
आज आपकी कविता में प्रात का दृश्य चित्रित देखकर मुझे पहली बार यह लगा कि सुबह देर से सोकर उठने की आदत के कारण मैंने कौन सा ख़ज़ाना खोया है! लेकिन यह कविता एक पेंटिंग की तरह मेरे सामने बिखरी है!! धन्यवाद आपका!!
पहली पंक्ति से ही जाने क्यों वन्दे मातरम् याद आया ...सुन्दर अभिव्यक्ति
कितना सुन्दर परिवेश !गंगा की तरल निर्मलता के साथ प्रकृति का यह संयोजन - पक्षियों का कलरव ,सरसों के वासंती रंग ,और तट की भुरभुरी बालुका का स्पर्श मन में आनन्द की लहर उठा गया .
पूरा दृष्य सामने अंकित कर एक खुशनुमा ताज़गी का एहसास करा दिया आपने !
साधु!
झर रहे हैं पात माँ,
स्वर्णिम भूरे गाछ से।
मानों किसलयों की कोई सरि,
उमड़ती हो करने गाढ़ालिंगन,
दूब की वत्सल क्रीक से।
सुन्दर पंक्तिया....भूले -बिसरे शब्दों से सजी ख़ूबसूरत कविता
कैसा सुख है माँ,
कृमियों से जोती मृदा पर,
तलवे ठहराने का?
कौन सा मधुरिम धवल,
तोय उमड़ा आता है,
धोने मन-कण-क्षण।
...आह! कैसी तो गुदगुदी हो गयी इसे पढ़कर ! निराला की शागिर्दी करी है क्या जो इतने सटीक शब्द पा जाते हो लिखते वक्त ? कल पूछेंगे गंगा मैया से क्या करू माँ कि मिले मुझे भी तेरा आशीर्वाद।
खूबसूरत शब्दचित्रों से सजी अनूठी प्रस्तुति. आभार.
नेह और अपनेपन के
इंद्रधनुषी रंगों से सजी होली
उमंग और उल्लास का गुलाल
हमारे जीवनों मे उंडेल दे.
आप को सपरिवार होली की ढेरों शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.
SUNDAR RACHNA...
कैसा अनहद है माँ,
गूँजता है निसर्ग से, चंहुओर से।
प्रेम की कैसी मलयज पवन,
बहती रहती है हर क्षण,
तुम्हारी ही ओर से।
maa ka jadu hai kalam me ... ek ek shabd dil ko sahlata hua
आप सभी का हार्दिक धन्यवाद
कितने दिन बाद माँ!!
कितने दिन बाद,
देखा है यह प्रात।
कौन सी दिशा से नभ,
देता है असीस में,
ऐसी अपरिसीम हर्षिल प्रभाएँ?
हर्षिल प्रभाएँ ..और सुंदर वर्णन ....
बहुत सुंदर रचना ....
बढिया पोस्ट.
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