क्यों मनोरम गीत सा नेपथ्य से कुछ बज रहा?
रात का अंतिम प्रहर कैसी उमग में सज रहा?
कैसा है उल्लास साजा यामिनी ने भाल पर?
शंख का स्वर झूमता है दुंदुभि की ताल पर।
वंचना के घाव अजस्र जो विपथ ने थे दिए,
देख यह मुदिता चमक, सब चुक गए और चल दिए।
दैन्य की सारी विमायें एक ऋत से घुल गईं,
अंतः की सारी क्षुधायें सद्य पवन में धुल गईं।
अब जो कीमियागर हृदय का, घोलता है हास को,
पोर अंतस के सभी देते विदा संताप को।
उर्मियों के बीच लिपटा जो था जीवन डूबता,
आज है हर्षित-अचंभित, कूल उससे जा लगा।
अहो! यह कैसा निरुपम बोध, है कैसी छटा?
नाद यह कैसा सुखद, लघु सँध से झरकर अटा?
कौन देहरी, कौन फाटक, और कैसी अर्गला?
छोह में उमड़ा हुआ मन तोड़ सब बंधन चला।
अभी तो है कुछ समय इस रात के प्रस्थान में,
कौन सा पाथेय पा लूँ, आए उस पथ काम में?
थे विजन को टेरते जो आर्द्र, वो सूखे नयन,
और जो सूखे तो उनसे, स्निग्ध सोता बह चला।
प्रगट हों दुःख सामने, रह जायें या अव्याकृता,
भांप ले जिसका हृदय बोली-अबोली हर व्यथा,
धिपिन उत्सव के क्षणों, यह देख कर आओ तनिक,
द्वार पर मिलने पिता से, आ गई है क्या सुता?
22 टिप्पणियाँ:
क्यों मनोरम गीत सा नेपथ्य से कुछ बज रहा?
रात का अंतिम प्रहर कैसी उमग में सज रहा?
कैसा है उल्लास साजा यामिनी ने भाल पर?
शंख का स्वर झूमता है दुंदुभि की ताल पर।
bahut badhiyaa
अद्भुत!
वाह सुंदर। भाई मुझे तो यही समझ आ रहा है कि विवाहोपरांत दुल्हन की विदाई से पूर्व का दृश्य है यह। और कोई आशय हो आपका तो भी पढ़ने में बहुत आनंद आया।
बहुत सुन्दर
शब्दो का चित्र सा खिचता चला गया मन मे
शुभकामनाये
वाह ....बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
अप्रतिम रचना...बधाई स्वीकारें
नीरज
GOD BLESS U MY FRIEND................!!!!!!!
finally aap ne hamaari sun li....kya baat hai dost, kya likha hai.....bohot bohot bohot hi khoobsurat. i dont have enough words.....bohot hi sundar....
aur vo aakhiri pankti.....aa gayi hai kya suta......sannnnn reh gayi main....kahan mod diya rachna ko, tooooooooooooooooooooooooo good, awwesome....
kavita nahin hai ye, geet hai....a beautiful beautiful song :)
adbhut rachna..........is se jyada kya kah skta hu main!!!!!!!!!
sundar rachna...
मैं भी बस 'अद्भुत !' ही कह पाऊंगा.
अभिभूत कर दिया है हमेशा की तरह। नैट कनैक्शन ठीक नहीं, चिट्ठी को तार समझना:)) शुभकामनायें बहुत सी।
अविनाश जी!
ह्र्दय से टिप्पणियाँ करता हूँ, मस्तिष्क से नहीं.. किंतु आज आपने ह्र्दय को ऐसे छुआ है कि नेत्र सजल हो उठे हैं! क्षमा करेंगे..अद्बुत कहने का साह्स भी नहीं जुटा पा रहा!
अद्वितीय!!!!! मानवीकरण अलंकार का अद्भुत उदाहरण....
विदा से पहले का अद्भुत भाव खींचा है आपने कलम से। कविता का प्रवाह गज़ब का है। भाव-तरंग में मन इतना डूबा है कि शब्द नहीं मिल रहे तारीफ के।...बहुत बधाई।
उत्कृष्ट कविताओं की श्रंखला में एक और पृष्ठ।
भावपूर्ण,लयबद्ध सुन्दर रचना
शब्दों का संयोजन अति सुन्दर
कैसा मार्मिक दृश्य उत्पन्न कर दिया है ...बहुत सुन्दर ..
बहुत कोमल और करुण भावों से समन्वित कविता है .पर कुछ अव्यक्त-सी भी .यह कोई सामान्य बिदा नहीं है,एक बड़ा रूपान्तरण होने जा रहा है . पर जो संदर्भ यहाँ आ रहा है (रूपान्तरण से पूर्व की द्विधा या व्याकुलता) ,वह गले से नहीं उतर रहा है.
जब परिणति है-
'और अब जो कीमियागर...कूल उससे जा लगा.'
तो फिर यह प्रश्न कैसा -
'प्रकट हो दुख सामने या..क्या सुता .'
हो सकता है पूरी परिणति पाने तक की मानसिकता द्योतित हो रही हो ,एक ओर उल्लास दूसरी ओर कुछ अनिर्णीत से प्रश्न !
आप सभी का आभार!
सोमेश जी एवं प्रतिभा जी,
यह पुत्री की नहीं, पिता की अंतिम विदा है।
संभवतः मैं बात सही से प्रेषित नहीं कर पाया रहा होऊँगा।
निःशब्द करती..मन और नयन बहा देने वाली अभूतपूर्व कविता....
और क्या कहूँ...कुछ भी सूझ नहीं रहा...
अद्भुत !
अहो! यह कैसा निरुपम बोध, है कैसी छटा?
नाद यह कैसा सुखद, लघु सँध से झरकर अटा?
कौन देहरी, कौन फाटक, और कैसी अर्गला?
छोह में उमड़ा हुआ मन तोड़ सब बंधन चला।
बाँध कर रख दिया इन शब्दों ने....
बेहद अप्रतिम रचना
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