शापित




कोई दीप जलाओ और प्रिये,
एक निविड़ रचो, विश्राम करो।
मुझ में जो जम कर बैठा है,
उस पौरुष को रो लेने दो।

मनुहार-प्रीत की बेला में,
तुमसे दरवेशी वचन लिए।
अंजन जो फैला जाता है,
उसको विनाश बो लेने दो।

सौ दुर्गम दर्रे पार किये,
कितने छाती पर वार लिए।
अभिप्रेत मूल्य जो चुका दिया,
अब स्वयं को भी खो लेने दो।

दो झिप के बीच का मधु-दर्शन,
विशद स्पृहा का एकाकीपन।
जागे जो आख्यान वृहद,
सब स्कंध मोड़ सो लेने दो।

जो अधरों में ही घुले रहे,
जो मौन से निशदिन धुले रहे।
औ पनस की भांति सूख गए,
संताप मुझे वो लेने दो।

प्रीत पगी कोरी पाती,
स्फटिकों से कहीं श्रेयस थाती।
जो स्नेहिल शब्द अव्यवस्थित हैं,
दृग नीर से सब धो लेने दो।

मैं बन्ध तोड़ आ सकता था।
सब छंद छोड़ आ सकता था।
किन्तु रणभेरी जो चुन ली,
सब श्राप मुझ ही को लेने दो।

कितना जीवन मुझ पर वारा,
मैं जीता, तुमने सब हारा।
अब आज बदलने दो पाले,
यह भार मुझे ढो लेने दो।

ऐसा भी नहीं कि ग्लानि है,
रण मेरी नियति पुरानी है।
पर स्नेहघात के फलस्वरूप,
जो होता है, हो लेने दो।


========
पनस= कटहल

25 टिप्पणियाँ:

Ravi Shankar said...

देव !

प्रीत पगी कोरी पाती
स्फ़टिकों से कहीं श्रेयस थाती
जो स्नेहिल शब्द अव्यवस्थित हैं
दृग नीर से सब धो लेने दो…

प्रेमी हूँ हृदय से सो प्रज्ञा ऐसी पन्क्तियों में ही सब रस पा लेती है… :) । अभी इसी छन्द को लिये जाता हूँ, शेष कविता के लिये पुन: आऊँगा।

सादर वन्दे!

सोमेश सक्सेना said...

अविनाश जी एक अलग ही प्रदेश में ले जाते हैं आप अपने साथ बहाकर।
इस प्रणय-गीत को पढ़ने में बहुत आनंद आया।
आभार।

nilesh mathur said...

वाह! बहुत सुन्दर!

वाणी गीत said...

जो स्नेहिल स्वर अव्यवस्थित हैं , दृग नीर से सब धो लेने दो ..
पर स्नेहघात के फलस्वरूप,
जो होता है, हो लेने दो।

सुन्दर भावाभिव्यक्ति !

संजय @ मो सम कौन... said...

ऐसे स्वेच्छा से संतापाकांक्षी, श्रापाकांक्षी हो पाना सबके वश में नहीं।
आज का श्रेय उसे जिसने ऐसे आह्वान को आमंत्रित किया, विवश किया इस प्रस्फ़ुटन को।

Anonymous said...

अवि.....आज ज़माने बाद मुझे कोई शुद्ध हिंदी रचना इतनी ज़्यादा पसंद आई, के खुद हिंदी में लिख देने का दिल कर रहा है. बोहोत बोहोत ही सुन्दर कविता है. किसी ना किसी तरह, मुझे नहीं पता कैसे, पर ये आपकी बाक़ी रचनाओं से अलग है, ज्यादा मीठी सी है.....

कोई दीप जलाओ और प्रिये
एक निविड़ रचो, विश्राम करो....

वाह....क्या कहूँ, बोहोत बोहोत बोहोत प्यारी शुरुआत.

अभिप्रेत मूल्य जो चूका दिया
अब स्वयं को भी खो लेने दो

tooooooooooooo good...!!

जो अधरों में ही घुले रहे...........संताप मुझे वो लेने दो

क्या खूब अंदाज़ है कहने का....

जो स्नेहिल शब्द अव्यवस्थित हैं
दृग नीर से सब धो लेने दो

its just so lovely, so beautiful, i hav no words


कितना जीवन मुझपर वारा
मैं जीता तुमने सब हारा
अब आज बदलने दो पाले
यह भार मुझे धो लेने दो...

पुराने गीतों जैसा स्वाद है इन् लफ़्ज़ों में....u kno the golden classics. its like a time machine....transported me way back in time.....hats off to u buddy....u rocked :)

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

nice , heart touching , congrats.

नीरज गोस्वामी said...

आपके शब्द और भाव...कमाल के हैं...मेरी बधाई स्वीकारें..
नीरज

प्रतिभा सक्सेना said...

वह शाप गरिमामय है जिसे शिरोधार्य करके भी ग्लानि न ग्रसे और वह संताप वरेण्य जिसका अश्रु-पात स्नेह को समुज्ज्वल कर दे !

रश्मि प्रभा... said...

ऐसा भी नहीं कि ग्लानि है,
रण मेरी नियति पुरानी है।
पर स्नेहघात के फलस्वरूप,
जो होता है, हो लेने दो।
.... waah , bas is rachna ko parichay, tasweer blog link ke saath mujhe bhej do vatvriksh ke liye

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मैं बन्ध तोड़ आ सकता था।
सब छंद छोड़ आ सकता था।
किन्तु रणभेरी जो चुन ली,
सब श्राप मुझ ही को लेने दो।

जो मार्ग चुन लिया है उसके लिए फिर शाप कैसा ...ऐसे पथ पर जाने में गर्व है ..बहुत अच्छी रचना ..

रचना दीक्षित said...

आपके ब्लॉग पर आकर खो जाती हूँ. किसी और ही दुनिया में,फिर निकलना दूभर हो जाता है. प्रतिक्रिया भी लिखने को मन नहीं होता वापस जो आना पड़ता है

शिवा said...

बहुत बढ़िया ,कमाल की प्रस्तुति
गीत को पढ़ने में बहुत आनंद आया।
आभार।

दिगम्बर नासवा said...

कितना जीवन मुझ पर वारा,
मैं जीता, तुमने सब हारा।
अब आज बदलने दो पाले,
यह भार मुझे ढो लेने दो ...

ये सच है हिन्दी का असली रस स्वादन आपकी रचनाओं में बाखूबी मिलता है ... भाव और सबदों का बेजोड़ संगम ...

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (20/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

प्रेम में प्राणोत्सर्ग कर देना बहुत सरल है किंतु कोई ऐसा मिलना जिसपर प्राण उत्सर्ग किये जा सकें बहुत कठिन है..
अविनाश जी! जिसकी रचना इतनी सुंदर वो कितना सुंदर होगा यह तो आपके कोमल हृदय को देखकर लगाया जा सकता है, लेकिन जिसके लिये वो सब ओढ़ लेने की बात कहीं है आपने इस कविता में वह कितना सुंदर होगा! प्रेम का उच्चतम शीर्ष दिख रहा है इस कविता में!!

मुदिता said...

अविनाश...
एक बार फिर तुम्हारा कमाल देख कर नतमस्तक हूँ ...इतनी शुद्ध हिंदी और इतने प्यारे भाव ... बहुत शुभकामनाएं ...अक्सर तुम्हारी रचनाओं के समकक्ष बुद्धि पहुँच नहीं पाती इसलिए कुछ कह नहीं पाती..यह रचना हृदय तक पहुंची....हिंदी मुझ जैसी कम हिंदी समझ पाने वालों के लायक आसान है इसलिए पूरा आनंद ले पायी बिना शब्दकोष कि सहायता के :) ....बहुत बहुत आशीष..तुम्हारी कलम यूँही फूल बरसाती रहे .

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

bahut hi sundar shabdon-bhavon se saji pravahmayi rachna.
man moh liya !

deepti sharma said...

bahut sunder rachna
...
mere blog par
"jharna"

प्रवीण पाण्डेय said...

जो होता है, हो लेने दो।

हरकीरत ' हीर' said...

मुझ में जो जम कर बैठा है,
उस पौरुष को रो लेने दो।

सुभानाल्लाह ......
प्रेम क़ी ऐसी प्रकाष्ठा .....?

अंजन जो फैला जाता है,
उसको विनाश बो लेने दो।

क्यों .....?
प्रेम में विनाश क्यों ....?

औ पनस की भांति सूख गए,
संताप मुझे वो लेने दो।

ये पनस वाला बिम्ब अद्भुत है .....

जो स्नेहिल शब्द अव्यवस्थित हैं,
दृग नीर से सब धो लेने दो।

प्रेम रस में डूबी -भीगी सी ..
अपना सबकुछ अर्पण करती
सुकोमल श्रेष्ठ कविता ....!!

प्रतिभा सक्सेना said...

ब्लाग 'शिप्रा की लहरों' के समर्थक वाले पृष्ठ पर 'संदेश भेजें' के कॉलम द्वारा आपको मेल भेजी थी -मिली या नहीं ?
- प्रतिभा.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.....
---------
हिन्‍दी के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले ब्‍लॉग।

Avinash Chandra said...

आप सभी का आभार।

Smart Indian said...

जय हो!