अंशुमाली की प्रथम रश्मियों से,
प्रात वनिता जब धो रही होती है,
झूमते-सरसराते बाँस के झुरमुट।
और बजा रहा होता है कोई घंटा,
उस पार बलुई छोड़ हटान पर बने,
अंजनिकुमार-आजानुभुज के संयुक्त मंदिर में।
निथर आती है जब कठुली भर सुथराई,
तुलसी के हरे-काले प्रत्येक पत्तों पर,
एक समान, एक सी. स्वेच्छया, स्वतः।
तोड़ रही होती हैं उचककर लड़कियाँ,
जब तरोई-सेम-करेले अहाते से,
मुँह पर हाथ धरे खिलखिलाते हुए।
मौन कर मुक्त, उन्मुक्त रंभाती हैं जब गायें,
टुहकनी गौरैया कचरती है टूटे चावल,
गेंहूँ, जौ, दाल कुटुर-कुटुर कट-कट।
पिताजी अगोर रहे होते हैं जब अखबार,
औ' नोचने लगती हैं गिलहरियाँ अमरुद,
माँ को अइपन काढने में व्यस्त देख।
फूल रही होती हैं जब रोटियाँ सुजान आँच पर,
छुआए जा रहे होते हैं दही से लाचीदाने,
सिल घोंट रहा होता है पुदीने में टिकोरे।
कनेर गिरने लगते हैं टप-टपाक जब,
लू टहकार रही होती है शमी, अढ़उल!
धूप खेलती है अकेली ही भर ओसारे।
या धैर्य चुका सनई के खेत जब काटते हैं सूरज,
और भकुआया हुआ वो छींट जाता है,
रात का सहेजा हुआ, भगौना भर जावक।
जोड़े दिन भर की दिहाड़ी, समेटे स्वप्न,
जब लौट रहे होते हैं खेतिहर, विहंग, मजूर।
औ' रूप निहारता कोई जड़ देता है दर्पण को दिठौना।
टिमटिमाते हैं मंगल-ध्रुव, बाबा-नाना,
और बेतों से पीट-पीट करिया देती है,
विधु की पीठ, रजत वेणी वाली बुढ़िया।
जब रात चुप से टपका जाती है अमृत की असंख्य बूँदें,
गभुआरे हरसिंगार गमक उठते हैं सहसा झुण्ड-झुण्ड,
औ टपकन थाम लेती है धरित्री, प्रात से पहले -रवहीन।
ऐसे दीप्त क्षणों के सुभीते हरित निकुंज,
जो उग आता है स्व में, स्व से ही,
होता है प्रस्फुटित, अतल-तल से स्वलक्षण,
निर्मल मनोरम गतिमान अलभ्य,
सुशान्त गरिमामय, स्मितित संस्कार।
आजन्म तुमसे मेरा प्रेम वही हो।
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वनिता= स्त्री
विधु= चन्द्रमा
वेणी= चोटी
जावक= महावर
दिठौना= नज़र से बचाने वाला काजल का टीका
25 टिप्पणियाँ:
प्रात की अद्भुत वेला का मनोरम वर्णन जिस प्रकार से आपने किया बहुत हृदयस्पर्शी लगा.
बधाई सुंदर कविता के लिए.
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (13-6-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
जब रात चुप से टपका जाती है अमृत की असंख्य बूँदें,
गभुआरे हरसिंगार गमक उठते हैं सहसा झुण्ड-झुण्ड,
औ टपकन थाम लेती है धरित्री, प्रात से पहले -रवहीन।
ऐसे दीप्त क्षणों के सुभीते हरित निकुंज,
जो उग आता है स्व में, स्व से ही,
होता है प्रस्फुटित, अतल-तल से स्वलक्षण,
निर्मल मनोरम गतिमान अलभ्य,
सुशान्त गरिमामय, स्मितित संस्कार।
आजन्म तुमसे मेरा प्रेम वही हो।
kuch kahne ko raha kya ,....
सुबह के बेहतरीन वर्णन के साथ बहुत कुछ कह दिया आपने
शुभकामनाये
शब्दों की महक बिखेर कर और महका दिया है आपने वातावरण।
मौन कर मुक्त, उन्मुक्त रंभाती हैं जब गायें,
टुहकनी गौरैया कचरती है टूटे चावल,
गेंहूँ, जौ, दाल कुटुर-कुटुर कट-कट।
अद्भुत रचनाएँ होतीं हैं आपकी ये भी वैसी ही है |इतना सुंदर विवरण ..सुंदर शब्दों का प्रयोग..!!वो नयनाभिराम सौन्दर्य आँखों के सामने मुखरित हो उठा ...!!
बस एक शिकायत ..बार बार करनी पड़ती है -कठिन शब्दों के अर्थ साथ देदें जिससे पढ़ने वालों का काम आसान हो जायेगा.
आदरणीय अनुपमा जी,
तनिक आलसी हूँ, कभी कभी नहीं लिख पाता अर्थ।
यद्यपि आज तो लगा था कठिन शब्द नहीं हैं।
कुछेक शब्दों के अर्थ दे रहा हूँ, कोई और शब्द छूट गया हो तो इंगित करियेगा।
सादर।
लू टहकार रही होती है शमी अढ़उल,
ye samajh nahi aaya .
शमी एक आम घरेलू वृक्ष है जिसकी पूजा होती है, और अढ़उल एक फूल का पौधा है- दोनों ही दोपहर में लू से जूझते हैं, और लू उनपर अपना पराक्रम दिखा रही होती है/चिल्ला रही होती है।
वाह, एक सुहानी सुबह की रागिनी!
...सुंदर बिंबों से सजी बेहतरीन कविता।
टुहकनी गौरैया कचरती है टूटे चावल,
गेंहूँ, जौ, दाल कुटुर-कुटुर कट-कट
कनेर गिरने लगते हैं टप-टपाक जब,
लू टहकार रही होती है शमी, अढ़उल
भकुआया हुआ वो छींट जाता है,
रात का सहेजा हुआ, भगौना भर जावक
गभुआरे हरसिंगार गमक उठते हैं सहसा झुण्ड-झुण्ड,
औ टपकन थाम लेती है धरित्री, प्रात से पहले -रवहीन।
....अद्भुत चित्रण!
प्रतीक्षा सफल हो गई .इतनी सरस ,मधुर मनोमुग्धकारी कविता का अनोखा आनन्द - जी जुड़ा गया .धरती के सहज जीवन सी चैतन्य,प्रकृति के अनुपम अवदानों से सजी और भाव संपदा ! शब्द पर्याप्त नहीं हैं :
बधाई ,अविनाश जी !
सुन्दर रचना बधाई
आँखों के आगे साकार हो उठे सारे मनोरम दृश्य...वो रोटियों का फूलना...वो पुदीने की चटनी.....कनेर...अढ़उल...शमी का जिक्र...
बहुत ही सुन्दर कविता...बार-आर पढ़ने को बाध्य करती हुई.
'ऐसे दीप्त क्षणों के सुभीते हरित निकुंज,
जो उग आता है स्व में, स्व से ही,
होता है प्रस्फुटित, अतल-तल से स्वलक्षण,
निर्मल मनोरम गतिमान अलभ्य,
सुशान्त गरिमामय, स्मितित संस्कार।
आजन्म तुमसे मेरा प्रेम वही हो'
स्वत:-स्फ़ुर्त और अनायास ही जड़ें जमा लेने वाला प्रेम ही शाश्वत प्रेम है और वो जन्म-मृत्यु, हानि-लाभ से सीमातीत है।
दिठौना सिर्फ़ दर्पण को ही लगाने से काम नहीं चलेगा, रूप से कहीं बड़े इस कविता से सलोने भाव हैं, उन्हें भी नजर न लगे।
अद्भुत मनोहारी शब्द चित्र...बहुत सुन्दर
shabdon ke harsingar apni mahak se sarabor kar gaye...
भोर का तो अद्भुत वर्णन कर दिया है कविवर. घर जाने का मन हो आया. इस कविता को पढ़. घर जाकर सुबह उठने का मन.... ओह !
शनिवार (१८-०६-११)आपकी किसी पोस्ट की हलचल है ...नयी -पुरानी हलचल पर ..कृपया आईये और हमारी इस हलचल में शामिल हो जाइए ...
गेंहूँ, जौ, दाल कुटुर-कुटुर कट-कट।
कनेर गिरने लगते हैं टप-टपाक जब,
आवाजों के जादू को शब्दों में ढाला है जो बहुत अच्छा लग रहा है .. यह रचना कैसे रह गयी पढने से ?
बहुत सुन्दर भावों से सजी ..हर पल जीवंत स हो उठा है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 31 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह
बहुत सुंदर।
आदरणीया मैम ,
प्रातः काल के सभी दृश्यों को दर्शाती सुकोमल भावनाओं से परिपूर्ण रचना। बहुत ही सुंदर कविता के लिए हृदय से आभार व सादर नमन।
निकोरी उपमाएं अभिनव व्यंजनाएं।
बहुत सुंदर मोहक सृजन।
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