कितने दिन बाद माँ!!
कितने दिन बाद,
देखा है यह प्रात।
कौन सी दिशा से नभ,
देता है असीस में,
ऐसी अपरिसीम हर्षिल प्रभाएँ?
हुलस उठता है माँ,
मन का तुरंग,
जैसे देख झुरमुट,
सुथराई से धुले काँसों के।
सौष्ठव प्रदर्शित करते हैं,
हवा से जूझ सुदूर, उस पार,
गेहूं के बौराए पौधे,
धरे वेष्टित स्वप्न।
कब देखा था पिछली बार,
सरसों से अनुस्यूत,
अरहर को लहकते-बहकते?
माँ! बया अब भी है,
बल्कि लाई है दो पड़ोसिनें भी।
रसाल-महुआ-दाड़िम पर,
बसा लिए हैं नीड़ सबने,
झाड़-झकोर-पछोर।
मुकुलित सरसों की किंकिणियाँ माँ!!
माँ अब भी उन्हें,
लाड से देखो वैसे ही,
हिलाती है बासंती-फागुनी।
कैसा सुख है माँ,
कृमियों से जोती मृदा पर,
तलवे ठहराने का?
कौन सा मधुरिम धवल,
तोय उमड़ा आता है,
धोने मन-कण-क्षण।
झर रहे हैं पात माँ,
स्वर्णिम भूरे गाछ से।
मानों किसलयों की कोई सरि,
उमड़ती हो करने गाढ़ालिंगन,
दूब की वत्सल क्रीक से।
कैसा अनहद है माँ,
गूँजता है निसर्ग से, चंहुओर से।
प्रेम की कैसी मलयज पवन,
बहती रहती है हर क्षण,
तुम्हारी ही ओर से।
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वेष्टित= ढका हुआ, वस्त्र धारण किया हुआ
अनुस्यूत= गूँथा हुआ
रसाल= आम
दाड़िम= अनार
किंकिणियाँ= घुंघरू
मुकुलित= कलियों से युक्त
तोय= पानी
क्रीक= खाड़ी