विदा से पहले







क्यों मनोरम गीत सा नेपथ्य से कुछ बज रहा?
रात का अंतिम प्रहर कैसी उमग में सज रहा?
कैसा है उल्लास साजा यामिनी ने भाल पर?
शंख का स्वर झूमता है दुंदुभि की ताल पर।

वंचना के घाव अजस्र जो विपथ ने थे दिए,
देख यह मुदिता चमक, सब चुक गए और चल दिए।
दैन्य की सारी विमायें एक ऋत से घुल गईं,
अंतः की सारी क्षुधायें सद्य पवन में धुल गईं।

अब जो कीमियागर हृदय का, घोलता है हास को,
पोर अंतस के सभी देते विदा संताप को।
उर्मियों के बीच लिपटा जो था जीवन डूबता,
आज है हर्षित-अचंभित, कूल उससे जा लगा।

अहो! यह कैसा निरुपम बोध, है कैसी छटा?
नाद यह कैसा सुखद, लघु सँध से झरकर अटा?
कौन देहरी, कौन फाटक, और कैसी अर्गला?
छोह में उमड़ा हुआ मन तोड़ सब बंधन चला।

अभी तो है कुछ समय इस रात के प्रस्थान में,
कौन सा पाथेय पा लूँ, आए उस पथ काम में?
थे विजन को टेरते जो आर्द्र, वो सूखे नयन,
और जो सूखे तो उनसे, स्निग्ध सोता बह चला।

प्रगट हों दुःख सामने, रह जायें या अव्याकृता,
भांप ले जिसका हृदय बोली-अबोली हर व्यथा,
धिपिन उत्सव के क्षणों, यह देख कर आओ तनिक,
द्वार पर मिलने पिता से, आ गई है क्या सुता?



अनवरत



माना विजन पथ पर बहुत तुम चले हो,
महि के ही क्रोड़, अनिकेत तुम रहे हो।
पर अभी स्थापित किया है प्रथम केतन,
अभी तो पूरा भुवन ही नापना है।

सायास हैं जो आँजे सारे भित्तिचित्र,
स्वस्ति से पगे अरे विनम्र विप्र!
स्निग्ध छोह की इयत्ता मगर,
अजस्र रहे, तुम्हे ही ये भी देखना है।

शोण बहता है शिराओं में तुम्हारी,
द्युतमान तुमसे कम तनिक है अंशुमाली।
विरूपण व्यतिक्रम से तुम परे हो,
किन्तु विकर्षण को अभी भी रोकना है।

कुसुम्भ कुसुम है तृण-हर्म्य में उगाये,
अनुदिन धिपिन आविष्ट कलेवर बनाये।
किन्तु कई विपथ अभी भी छूटते हैं,
अभी उनको शस्य करने जोतना है।

कौन सा दिव है, प्रतिहत ना हुए हो?
सच बताना क्या चिलक में ना जिये हो?
यह तो प्रघट्टक के आवर्तन का नियम है,
आगे कुत्सा की शिलाओं को भेदना है।

गह्वरों-विवरों से सकुशल निकल आए,
उत्ताप के तुरंग, विरति वल्गा लगाये।
किन्तु गेह में हैं खटरागी द्विधायें,
उनकी लोल उर्मियों से खेलना है।

तुमने लांघी पर्वतों की शत वनाली,
रुके न, निष्कंप, एक जऋम्भा न डाली।
किन्तु अभी ऐसे दिन भी देखने हैं,
जिनके स्वप्न की भी सबको वर्जना है।

कौन पीयूष सोता तुमने ना बहाया?
कौन सा निनाद ऐसा जो न गाया?
अवहित्था ही है किन्तु योषिता तुम्हारी,
और न इसमें तनिक भी अतिरंजना है।

ठीक तुम अमर्त्य नहीं, जंगली किरात सही,
किन्तु जग प्रहसन उठाये, तुम कोई कन्दुक नहीं।
साँझ की जो श्याम होती यवनिका है,
उसे तुम्हारे बाणों से ही बिंधना है।

भूल चलो जो किये अब तक हैं अर्जित,
इतिवृत्तों को कितने दिवस पोंछना है?
उदीप में अब, हे मनु निर्बंध बढ़ो,
कूल तक नहीं कभी भी लौटना है।



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विजन= एकांत
क्रोड़= गोद
केतन= ध्वज
विप्र= वेदज्ञाता
इयत्ता= मात्रा/माप
छोह= ममता/दया
अज्रस= निरंतर प्रवाहित
शोण= लाल/ रक्त
अंशुमाली= सूर्य
द्युतमान= तेजस्वी
तृण-हर्म्य= कुटी
धिपिन= उत्साहजनक
कुत्सा= निंदा
वल्गा= लगाम
जऋम्भा= जम्हाई
अवहित्था = भाव छुपाना
योषिता= स्त्री
कन्दुक= गेंद
इतिवृत्त= इतिहास वृत्तांत
उदीप= बाढ़
कूल= तट