कविताएँ सुनी जा सकती हैं,
अर्गलाहीन पीपल के,
पुराने कोटर पर,
जहाँ रहा करती हैं,
नन्ही त्रिरेखीय गिलहरियाँ।
जेठ मास के सूरज से,
झुलस चुकी बाँबियों पर,
जो पिछले सप्ताहांत ही,
खाली की जा चुकी हैं।
कविताएँ लिखी जा सकती हैं,
अनिमेष ताकते दिनकर पर,
मान सुथराई हंता,
या ओस का पुण्य पिता,
अपनी अपनी तथा-यथावश।
विहस उठाने में सक्षम है,
जो कोई भी मृदु-कल्पना,
शशि पर, उसकी कलाओं पर,
तारकों की उद्दाम विभाओं पर।
कविताएँ गुनी जा सकती हैं,
गर्दन मरोड़ जुगाली करती,
दूधविहिना बिलाई भैस पर।
सँध से छन कर आती,
पूस को भरमाती हल्की ताप पर।
उस अगरू सुगंधि पर जो,
करती है विश्वास बलवती,
सौ युगों बाद खोद कर निकाले गए,
विग्रह की स्मिता पर।
कविताएँ कही जा सकती हैं,
गुलमर्ग की सफ़ेद औ लाल,
घाटियों के निरूपम सौंदर्य पर।
देवदार पर अनी के जैसे जुड़े,
तुषार के बिनौलों पर।
रोहू-काट्ला चुनते गाते,
हुगली के मछुआरों पर।
ताम्बई कड़े पहने झुलसती,
थार की तपती बरौनियों पर।
कविताएँ बुनी जा सकती हैं,
प्रशांत महासागर के,
सबसे गहरे तलौंछ पर,
जो सटकाए बैठा है,
भुवन जितने ही रहस्य।
आकाशगंगाओं , राहुओं, केतुओं,
राशियों-नक्षत्र दलों पर।
अगणित विधुर उत्कोच दबाये,
काल के प्रहरों पर।
किन्तु अब तक निर्वाक बैठे,
अश्वत्थ विटप पर प्रच्छन्न,
रण गुंजित-कलित होने वाले,
स्वायत्त शब्द सभी बंध तोड़,
फुनगी से बोल उठते हैं सहसा ही।
यहाँ भी ठहरोगे न मित्र?
वचन दो।
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अगरू= एक प्रकार की लकड़ी, जो अगरबत्ती बनाये के लिए प्रयुक्त होती है
विग्रह= देवप्रतिमा
सुथराई= ओस
रोहू-काट्ला= नदी की मछलियों के प्रकार
तलौंछ= द्रव-पात्र के तल में बैठा भारी अंश
भुवन= ब्रह्माण्ड
उत्कोच= रिश्वत
अश्वत्थ= पीपल